________________ श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् 207 भू-स्वपोरदतौ / 4 / 170 // 'भू-स्वपोः परोक्षायां द्वित्वे पूर्वस्य यथासंख्यमदुतौ' स्याताम् / बभूव, सुष्वाप // 70 // ज्या-व्ये-व्यधि-व्यचि-व्यथेरिः / 4 / 171 // एषां परोक्षायां द्वित्वे 'पूर्वस्य इ.' स्यात् / जिज्यौ, संविव्याय, विव्याध, विव्याच, विव्यथे // 7 // यजादि-वश्-वचः सस्वरान्तस्था वृत् / 4 / 1172 // 'यजादेर्वश्-वचोश्च परोक्षायां द्वित्वे पूर्वस्य सस्वरान्तस्था इ-उ-ऋरूपा प्रत्यासत्त्या स्यात्' / इयाज, उवाय, उवाश, उवाच // 72 // न वयो य / 4 / 1173 // 'वेगो वयो य परोक्षायां य्वृत् न' स्यात् / ऊयुः // 73 // वेरयः / 4 / 174 // 'वेगोऽयन्तस्य पूर्वस्य परस्य च परोक्षायां य्वृन' स्यात् / ववौ / अय इति किम् ? उवाय // 4 // . अविति वा / 4 / 175 // 'वेगोऽयन्तस्याऽविति परोक्षायां वृद्वा न स्यात् / वदुः, ऊवुः // 75 // - ज्यश्च यपि / 4 / 176 // 'ज्यो वेगश्च यपि य्वृन्न' स्यात् / प्रज्याय, प्रवाय // 76 // व्यः / 4 / 177 // 'व्यो यपि वृन' स्यात् / प्रव्याय // 77 // संपरेर्वा / 4 / 178 // आभ्यां परस्य 'व्यो यपि वृद्वा न' स्यात् / संव्याय, संवीय; परिव्याय,