________________ 186 श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् // फेनोष्म-बाष्प-धूमादुद्वमने // 3 // 4 // 33 // एभ्यः कर्मभ्य उद्वमनेऽर्थे 'क्यङ् वा' स्यात् / फेनायते, ऊष्मायते, बाष्पायते, धूमायते // 33 // सुखादेरनुभवे // 3 // 4 // 34 // साक्षात्कारेऽर्थे सुखादेः कर्मणः ‘क्यङ् वा' स्यात् / सुखायते, दुःखायते // 34 // शब्दादेः कृतौ वा // 3 // 4 // 35 // एभ्यः कर्मभ्यः कृतावर्थे 'क्यङ् वा' स्यात् / शब्दायते, वैरायते / पक्षे णिच्शब्दयति, वैरयति // 35 // तपसः क्यन् / 3 / 4136 // अस्मात् कर्मणः कृतावर्थे 'क्यन् वा' स्यात् / तपस्यति // 36 // नमो-वरिवश्चित्रकोऽर्चा-सेवाऽऽश्चर्ये / 3 / 4 / 37 // एभ्यः कर्मभ्यो यथासंख्यमर्चादिष्वर्थेषु ‘क्यन् वा' स्यात् / नमस्यति, वरिवस्यति, चित्रीयते // 37 // . अङ्गानिरसने गिङ् // 3 // 4 // 38 // अङ्गवाचिनः कर्मणो निरसनेऽर्थे 'णिङ् वा' स्यात् / हस्तयते, पादयते // पुच्छादुत्-परि-व्यसने / 3 / 4 / 39 // पुच्छात् कर्मण उदसने पर्यसने व्यसनेऽसने चार्थे 'णिङ् वा' स्यात् / उत्पुच्छयते, परिपुच्छयते, विपुच्छयते, पुच्छयते // 39 // भाण्डात् समाचितौ / 3 / 4 / 40 // . भाण्डात् कर्मणः समाचितावर्थे 'णिङ् वा' स्यात् / सम्भाण्डयते, परिभाण्डयते // 40 // चीवरात परिधाना-ऽर्जने / 3 / 441 //