________________ 176 श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् // किम् ? संप्रवदन्ते वैयाकरणाः / सहोक्तावित्येव- मौहूर्तो मौहूर्तेन क्रमाद् विप्रवदति // 8 // अनोः कर्मण्यसति / 3 / 3181 // व्यक्तवाचामर्थे वर्तमानादनुपूर्वाद् वदः कर्मण्यसति ‘कर्तर्यात्मनेपदम्' स्यात् / अनुवदते चैत्रो मैत्रस्य / कर्मण्यसतीति किम् ? उक्तमनुवदति / व्यक्तवाचामित्येव- अनुवदति वीणा // 8 // ज्ञः / 3 / 3 / 82 // जानातेः कर्मण्यसति ‘कर्तर्यात्मनेपदम्' स्यात् / सर्पिषो जानीते / कर्मण्यसतीत्येव- तैलं सर्पिषो जानाति // 82 // उपात् स्थः / 3 / 3 / 83 // अतः कर्मण्यसति 'कर्तर्यात्मनेपदम्' स्यात् / योगे योग उपतिष्ठते / कर्मण्यसतीत्येव- राजानमुपतिष्ठति // 83 // समो गमृच्छि-प्रच्छि-श्रु-वित्-स्वरत्यर्ति-दृशः / 3 / 3 / 84 // संपूर्वेभ्य एभ्यः कर्मण्यसति ‘कर्तर्यात्मनेपदम्' स्यात् / सङ्गच्छते, समृच्छिष्यते, संपृच्छते, संशृणुते, संवित्ते, संस्वरते, समृच्छते, समियते, संपश्यते / कर्मण्यसतीत्येव- सङ्गच्छति मैत्रम् // 84 // वेः कृगः शब्दे चाऽनाशे / 3 / 3 / 85 // अनाशार्थाद् विपूर्वात् कृगः कर्मण्यसति, शब्दे च कर्मणि 'कर्तर्यात्मनेपदम् स्यात् / विकुर्वते सैन्धवाः, क्रोष्टा विकुरुते स्वरान् / शब्दे चेति किम् ? विकरोति मृदम् / अनाश इति किम् ? विकरोत्यध्यायम् // 85 // ___ आङो यम-हनः, स्वेऽङ्गे च 13 // 3 // 86 // आङः पराभ्यां यम्-हन्भ्यां कर्मण्यसति, कर्तुः स्वङ्गे च कर्मणि 'कर्तर्या