________________ 174 श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् // निह्नवे ज्ञः // 3 // 3 // 6 // निह्नवः- अपलापः, तवृत्तेजः ‘कर्त्तर्यात्मनेपदम्' स्यात् / शतमपजानीते // सं-प्रतेरस्मृतौ / 3 / 3 / 69 // स्मृतेरन्यार्थात् संप्रतिभ्यां पराज्ज्ञः ‘कर्तर्यात्मनेपदम्' स्यात् / शतं संजानीते, शतं प्रतिजानीते / अस्मृताविति किम् ? मातुः संजानाति // 69 // ___ अननोः सनः / 3 / 3 / 70 // सन्नन्ताज्ज्ञः ‘कर्तर्यात्मनेपदम् स्यात्, न त्वनोः परात् / धर्मं जिज्ञासते / अननोरिति किम् ? धर्ममनुजिज्ञासति // 7 // . श्रुवोऽनाङ्-प्रतेः / 3 / 3 / 71 // सन्नन्ताच्छृणोतेः 'कर्तर्यात्मनेपदम्' स्यात्, न त्वाप्रतिभ्यां परात् / शुश्रूषते गुरून् / अनामतेरिति किम् ? आशुश्रूषति प्रतिशुश्रूषति // 71 // स्मृ-दृशः / 3 / 3 / 72 // आभ्यां सन्नन्ताभ्याम् ‘कर्तर्यात्मनेपदम्' स्यात् / सुस्मूर्षते, दिदृक्षते // 72 // शको जिज्ञासायाम् // 3 / 3 / 73 // शको ज्ञानानुसंहितार्थात् सन्नन्तात् 'कर्तर्यात्मनेपदम्' स्यात् / विद्याः शिक्षते / जिज्ञासायामिति किम् ? शिक्षति // 73 // प्राग्वत् / 3 / 3 / 74 // सनः पूर्वो यो धातुस्तस्मादिव सन्नन्तात् 'कर्तर्यात्मनेपदम्' स्यात् / शिशयिषते, अश्वेन संचिचरिषते // 4 // आमः कृगः / 3 / 375 // आमः परादनुप्रयुक्तात् कृग आम एव प्राग् यो धातुस्तस्मादिव 'कर्तर्यात्मनेपदम्' स्यात्, भवति न भवति चेति विधिनिषेधावतिदिश्यते / ईहाञ्चक्रे