________________ श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् 169 अन्वाडू-परेः / 3 / 3 // 34 // एभ्यः परात् क्रीडतेः 'कर्तर्यात्मनेपदम्' स्यात् / अनुक्रीडते, आक्रीडते, परिक्रीडते // 34 // शप उपलम्भने / 3 / 3 // 35 // उपलम्भनम्- प्रकाशनं शपथो वा, तदर्थाच्छपतेः 'कर्तर्यात्मनेपदम्' स्यात् / मैत्राय शपते / उपलम्भन इति किम् ? मैत्रं शपति // 35 // आशिषि नाथः / 3 // 3 // 36 // आशीरथदिव नाथेः 'कर्त्तर्यात्मनेपदम्' स्यात् / सर्पिषो नाथते / आशिषीति किम् ? मधु नाथति // 36 // भुनजोऽत्राणे / 3 / 3 / 37 // पालनादन्यार्थाद् भुनक्तेः ‘कर्तर्यात्मनेपदम्' स्यात् / ओदनं भुङ्क्ते / भुनज इति किम् ? ओष्ठौ नि जति / अत्राण इति किम् ? पृथ्वी भुनक्ति // 37 // . हगो गतताच्छील्ये / 3 / 3 / 38 // गतम्- सादृश्यम्, हृगो गतताच्छील्यार्थात् 'कर्तर्यात्मनेपदम्' स्यात् / पैतृकमश्वा अनुहरन्ते, पितुरनुहरन्ते / गत इति किम् ? पितुर्हरति चोरयतीत्यर्थः / ताच्छील्य इति किम् ? नटो राममनुहरति // 38 // पूजाऽऽचार्यक-भृत्युत्क्षेप-ज्ञान-विगणन-व्यये नियः 3 // 3 // 39 // पूजादिषु गम्येषु नियः ‘कर्तर्यात्मनेपदम्' स्यात् / नयते विद्वान् स्याद्वादे, माणवकमुपनयते, कर्मकरानुपनयते, शिशुमुदानयते, नयते तत्त्वार्थे, मद्राः कारं विनयन्ते, शतं विनयते / एष्विति किम् ? अजां नयति ग्रामम् //