________________ 94 अभिज्ञानशाकुन्तलम्-.. [प्रथमो शकुन्तला-( गतिरोधं रूपयित्वा-) हद्दी हद्दी ! उरुत्थम्बविन्भलम्भि संबुत्ता। [(गतिरोधं रूपयित्वा ) हा धिक् हा धिक् ! अरुस्तम्भविह्वलाऽस्मि संवृत्ता] राजा-'स्वैरं स्वैरं गच्छन्तु भवत्यः / आश्रमबाधा यथा न भवति तथाऽहमपि यतिष्ये / ( सर्वे उत्तिष्ठन्ति ) / सँस्यो-महाभाअ ! विदिअभूइटोसि / सम्पदं उवआरमजस्थदाए अवरद्ध ह्म, तं मरिसेहि। असम्भाविदसक्कारं भूओवि पचवेक्षणणिमित्तं अज विण्णवे ह्म। [ महाभाग! विदितभूयिष्ठोऽसि / साम्प्रतमुपचारमध्यस्थतया काचन तापसी। एकस्थाः = तदन्तिकगताः / * गतेः रोधस्तं = गमनावराध, रूपयित्वा = नाटयित्वा / हा धिक् = आः ! धिङ्माम् , ऊर्वोः स्तम्भेन विह्वलाअरुस्तम्भविह्वला = पादप्रसुप्तिपाडिता, संवृत्ता = जाताऽस्मि / स्वैरं-स्वैरं - शनैः-शनैः। 'मन्दस्वच्छन्दयोः स्वैर' मित्यमरः / विदितं = ज्ञातं, भूयिष्ठ = बहुलं शकुन्तला-[ अपनी गति से रोध (पैर, न उठने ) का अभिनय करती हुई ] हाय ! हाय ! मैं तो ऊरु के स्तम्भ से ( जाँघ भर आने से, या पैर सो जाने से ) विह्वल हो गई हूँ। अतः मेरे से चला ही नहीं जाता है। मेरे तो पैर उठते ही नहीं हैं। . राजा-घबड़ाइए मत, धीरे 2 जाइए। कोई घबड़ाने की बात नहीं है। मैं भी-आश्रम में कुछ गड़बड़ न हो-इसका जाकर प्रबन्ध करता हूँ। (सब उठ खडे होते हैं) दोनों सखियाँ-हे महाभाग! हम लोग आपको प्रायः पहिचान ही गई हैं (कि आप राजा दुष्यन्त ही हैं)। परन्तु हमलोगों ने आपका यथोचित अतिथि 1 ( ससम्भ्रमं) गच्छन्तु भवत्यः। वयमप्याश्रनपीडा यथा न भवति तथा प्रतिष्यामहे'। 2 'यतिष्यामहे // ( सर्वे उत्तिष्ठन्ति / 3 वचिन्न / 4 सख्यौ-अज ! असम्भाविदअहिथिसक्कारं भूओ वि पेक्वणणिमित्तं लजेमा अजं विष्णविदुम् / [ आर्य ! असम्भाविताऽतिथिसत्कारं भूयोऽपि प्रेक्षणनिमित्तं लजावहे आय विज्ञापयितुम् ]