________________ अभिज्ञानशाकुन्तलम्- . [प्रथमोराजा-भवतीनां सूनृतयैव वाचा कृतमातिथ्यम् / अनसूया-तेणे हि इमस्मि दोव पच्छाअसीदलाए सत्तबण्णवेदिआए उवविसिय अज्जो परिस्सम अवणेदु / . [तेन हि अस्यां तावत् प्रच्छायशीतलायां सप्तपर्णवेदिकायामुपविश्य आयः परिश्रममपनयतु] ! राजा--नूनं यूयमप्यनेन धर्मकर्मणा परिश्रान्तास्तन्मुहूर्त्तमुपविशत। प्रियंवदा--( जनान्तिक-) हला सउन्तले ! उइदं णो अदिधिपजुआसणं, ता एहि, उवविसह्म / ( इति सर्वा उपविशन्ति)। सूनृतया = मधुर-प्रियया / ‘सूनृतं प्रिये' इत्यमरः / अतिथये इदम्-आतिथ्यम् = अतिथिसत्कारः। प्रकृष्टा छाया यस्यां सा,-प्रच्छाया च सा शीतला च, तस्यां-प्रच्छायशीतलायां = प्रकृष्टच्छायाशालिन्यामत एव शीतलायां, सप्तपर्णस्य = विषमच्छदस्य, वेदिकायां = प्रस्तरखण्डनिबद्धकुट्टिमभुवि / 'सप्तपर्णो विशालत्वक् शारदो विषमच्छदः' इत्यमरः / 'स्याद्वितर्दिस्तु वेदिका' इत्यमरः। परिश्रमम् = अध्वक्लान्तिम् | अनेन = जलसेचनरूपेण, धोत्पादकं कर्म-धर्मकर्म / मध्यमपदलोपी समासः / तेन = धर्मवर्द्धकेन वृक्षसेचनव्यापारेण / तत् = तस्मात् , मुहूर्त = राजा-आपलोग क्यों कष्ट करती हैं ? / आपलोगों की इस प्रकार प्रिय और मधुर वाणी से ही हमारा अतिथि सत्कार तो हो गया / अनसूया-अच्छा, तो आप थोड़ा इस छायादार और शीतल सप्तपर्ण (सतौना) की वेदि ( चबूतरे ) पर बैठकर अपना मार्गश्रम ( थकावट ) तो दूर कर लें। राजा-मुझे ऐसा मालूम होता है, कि आप सब भी वृक्षों के सेचन रूपी इस धर्म कार्य से थक गई हैं, अतः आपलोग भी थोड़ी देर यहाँ बैठकर विश्राम कर लें, तो अच्छा हो। प्रियंवदा-( हाथ की आड़ करके केवल शकुन्तला से ही-) हे सखि 1 'गिरा'। 2 क्वचिन्न / 3 'परिस्समविणोदं करेदु अजो' / [ परिश्रमविनोदं करोत्वार्यः]। 4 'धर्मेति कचिन्न / ' 5 'सर्वे'।