________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 519 राजा--भगवन् ! 'प्रागभिप्रेतसिद्धिः, पश्चादर्शनम्' इत्यपूर्वः खलु वोऽनुग्रहः ! / कुतः ? उदेति पूर्व कुसुमं, ततः फलं, घनोदयः प्राक् , तदनन्तरं पयः / निमित्त-नैमित्तकयोरयंक्रम स्तव प्रसादस्य पुरस्तु सम्पदः! // 30 // श्रद्धा = भक्तिः। वित्तं = धनं / विधिः = श्रुत्युदितो मार्गः। त्रितयमेतदेकत्र समागतं = मिलितमिव / श्रद्धया, धनेन, विधिना च मिलित्वैव यज्ञादयो धर्मा अनुष्ठातुं शक्यन्ते, ततश्च परं पदमवाप्यते इति दुष्यन्तस्य सौभाग्यातिशयो दर्शितः। [ समालङ्कारः / निदर्शना च] // 29 // प्राक् = दर्शनात्प्रागेव / अभिप्रेतस्य = मनोरथस्य / सिद्धिः = प्राप्तिः / पश्चात्-दर्शनम् / वः = युष्माकम् / अनुग्रहः-प्रसादः / अपूर्वः = आश्चर्यप्रदः / तदेवाह-उदेतीति / कुसुम = पुष्पं-वृक्षे। पूर्व प्रथमम् / उदेति = उद्गच्छति / ततः = कुसुमानन्तरं / फलम्-उदेति / एवम्-घनस्य = मेघस्योदयादनन्तरं / पयः = जलमिति-निमित्तनैमित्तकयोः = कार्यकारणयोः / अयं क्रमःयह समागम-श्रद्धा, (शकुन्तला) धन (भरत), और विधि = शास्त्रोक्त विधान ( राजा दुष्यन्त ) का ही समागम है। अर्थात्-मनुष्य-धन, श्रद्धा और शास्त्रोक्त पद्धति के आश्रय से हो यज्ञ याग आदि पुण्यकार्य करके स्वर्गआदि परमपदों को प्राप्त करता है / अतः उन तीनों का एकत्र समागम होना प्रायः दुर्लभ होता है / पर यहाँ तो उन तीनों का समन्वय हम देख रहे हैं / अतः तुमारा तीनों का यह योग जगत् के कल्याण के लिए ही है // 29 // राजा-हे भगवन् ! किसी के तो दर्शनों के पीछे ही फल होता है, परन्तु आपके दर्शनों की तो यह महिमा है, कि-पहिले फलसिद्धि ( शकुन्तला और पुत्र की प्राप्ति) और पीछे आपके दर्शन ! / आपकी कृपा का (अनुग्रह' का) यह अपूर्व ही क्रम देखने में आ रहा है। क्योंकि लोक में वृक्षों में पहिले पुष्प आते हैं, तब उन मे फल आते हैं / मेघका आगमन भी पहिले होता है, तब वर्षा होती है, यही कार्य कारण का नियम सर्वत्र