________________ 504 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [सप्तमोबालः–मुञ्च मं, मुञ्च मं, अम्बाए सआसं गमिस्सं / [ मुश्च मां, मुश्च माम / अम्बायाः सकाशं गमिष्यामि ] / राजा--पुत्र ! मयैव सह मातरमभिनन्दिष्यसि / बाल:--दुस्सन्तो मम तादो, ण तु तुमं / / [ दुष्यन्तो मम तातो, न खलु त्वम् ] / राजा--एष विवाद एव मां प्रत्याययति / (ततः प्रविशत्येकवेणीधरा शकुन्तला ) / शकुन्तला--( सवितर्कम-) विआरकाले वि पइदित्थं सव्वदमणस्स ओसहिं सुणिअ ण मे आसंसो अत्तणो भाअधेएसुं। अधवा जधा साणुमईए में आचक्खिदं तधा सम्भावीअदि एदं। (सवितर्क-) विकारकालेऽपि प्रकृतिस्थां सर्वदमनस्य ओषधिं श्रुत्वा न मे आशंसाऽऽत्मनो भागधेयेषु / अथवा यथा सानुमत्या मे आख्यातं एष विवादः = 'न मे त्व'मित्यादि त्वत्कथनमेव / प्रत्याययति = निश्चाययति / विकारकाले = अन्येन ग्रहणे सर्परूपताप्राप्त्यवसरेऽपि / प्रकृतिस्थां = यथावस्थितामेव / सर्पभावमप्राप्ताम् / आशंसा = 'अयं मे पतिः' 'भूयो मां पतिर्ग्रहीष्यतीति बालक-मुझे छोड़ो, मुझे छोड़ो। मैं तो मेरी माता के पास जाऊँगा। राजा-हे पुत्र ! मेरे साथ ही अपनी माताके पास चलकर उसे आनन्दित करना। बालक-मेरे पिता तो 'दुष्यन्त' हैं / आप मेरे पिता नहीं हैं। राजा-यही विवाद ( दुष्यन्त मेरा पिता है-यह तुम्हारा कहना) ही मुझे विश्वास दिला रहा है, कि मैं ही तेरा पिता हूँ। क्योंकि मेरा ही नाम दुष्यन्त है। [एक वेणी ( खुले हुए एवं एक में लिपटे हुए केशों की जटा) को धारण किए हुए शकुन्तला का प्रवेश] / (पति के वियोग में स्त्रियाँ एक वेणी = केशों की एक जटा ही बनाकर शिर पर रखती थी / शिरः स्नान व तैल आदि से बालों का संस्कार नहीं करती थी-यह प्राचीन प्रथा थी)। __ शकुन्तला-( विचार करती हुई ) 'पिता-माता के सिवाय दूसरे मनुष्य से उठाई जाने पर सर्पपूर्ण हो जाने वाली, सर्वदमन के हाथ में बन्धी हुई अपराजिता ओषधि उनके उठाने से भी विकार को प्राप्त नहीं हुई' यह बात सुनकर भी मुझे तो मरे भाग्य पर ( इस बात पर ) भरोसा नहीं होता है-कि आर्यपुत्र