________________ ऽङ्कः] अभिनवगजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 503 राजा-अथ गृह्णाति ? / प्रथमा–तदो सप्पो भविअ तं दसइ / [ततः सर्पो भूत्वा तं दशति ] / राजा-अत्रभवतीभ्यां कदाचिदन्यत्र प्रत्यक्षीकृतमिदम् ? / उभे-अणेअसो। [अनेकशः] / राजा-( सहर्षमात्मगत-) तत्किं खल्विदानी पूर्णमात्मनो मनोरथं नाऽभिनन्दामि ! ( -इति बालकं परिष्वजते ) / द्वितीया-सुव्वदे ! एहि इमं वुत्तन्तं णिअमवावडाए सउन्तलाए णिवेदेम ( -इति निष्क्रान्ते ) / [सुव्रते! एहि ! इमं वृत्तान्तं नियमव्यापृतायै शकुन्तलायै निवेदयावः]। (-इति निष्क्रान्ते ) / भूत्वा = ओषधिः सर्परूपं धृत्वा / तं = ग्रहीतारम् / अनेकशः = बहुवारमन्यत्र प्रत्यक्षीकृतम् / मनोरथं = स्त्रीपुत्रसमागमरूपम् / किं नाभिनन्दामि = किं न प्रशंसामि / सर्वथा मया अभिनन्दनीयमेव / पुत्रं, पत्नीञ्च प्राप्तवानस्मीति भावः। . ['शृणोतु महाभाग' इत्यादिना पूर्व भावनामकं निर्वहणाङ्गम् / आनन्दो नाम सन्ध्यङ्गञ्च ] / नियमे = पूजादौ, वियोगिनीव्रते च / व्यापृतायै = प्रसक्तायै / राजा-यदि इसे कदाचित् अन्य पुरुष उठा ले तो क्या होता है ? पहिली तापसी-तो यह महौषधि उसे साँप बनकर काट लेती है। . राजा-क्या इस बात की कभी आपलोगों ने अन्यत्र भी (मेरे सिवाय कहीं और जगह भी) परीक्षा की है ? / / दोनों तापसी-एक दो बार नहीं, किन्तु बहुत बार हम लोग इस बात की परीक्षा कर चुकी हैं, कि जब 2 किसी दूसरे ने इस जन्तर को उठाया है, तभी इस महौषधि ने सर्परूप होकर उसे काट लिया है / राजा-( हर्ष पूर्वक मन ही मन ) तब तो अब मैं अपने पूर्ण हुए मनोरथ ( शकुन्तला और अपने पुत्र को प्राप्ति ) का अभिनन्दन (प्रशसा ) क्यों न करूँ ? / ( बालक को उठाकर छाती से लगाता है ) / दूसरी तापसी-हे सुव्रते ! आओ चलें, और अपराजिता महौषधि आदि के इस वृत्तान्त को तपस्विनी (दुःखिया, बेचारी ) शकुन्तला को जाकर सुनावें। (दोनों जाती हैं)।