________________ अभिज्ञानशाकुन्तलम् [प्रथमो इदं किलाऽव्याजमनोहरं वपु स्तपःक्षेमं साधयितुं य इच्छति / ध्रुवं स नीलोत्पलपत्रधारया शमीलतां छत्तमृषिर्व्यवस्यति // 18 / / शेषः। न साधु पश्यतीत्यसाधुदर्शी असाधुकारी, भगवान् सकलज्ञाननिधिः, काश्यपः= कण्वः / 'कण्व' इत्येव वा क्वचित् पाठः / आश्रमस्य धर्मस्तस्मिन् आश्रमधर्मे = आश्रमोचितधर्माचरणेषु, तपोवनकठिनकर्मसु वृक्षसेचनादिषु, नियुङ्क्ते = विनियोजयति / __ इदमिति / नास्ति व्याजः = आभूषणादिधारणं यत्र-तदव्याज, [ सत्-] मनोहरम्-अव्याजमनोहरं = स्वभावसुन्दरम्, इदं = शकुन्तलायाः, वपुः = शरीरं, तपसः क्षम-तपःक्षम-तपश्चरणयोग्य, साधयितुं - कत्तुं, यः किल ऋषिः = यो हि कण्वः / इच्छति = समीहते, सः = ऋषिः, ध्रव = नूनं, नीलमुत्पलं-नीलोत्पलं, नीलोत्पलस्य पत्राणां धारया-नीलोत्पलपत्रधारया = नीलकमलपत्राग्रभागेन, शम्येव लता--तां-शमीलतां = सक्तफलावृक्ष, कण्टकित कठोरत्वचं शमीवृक्षं, छेत्तुं-खण्डयितुं, व्यवस्यति = समीहते / [ शमीलतासादृश्योद्भावनादभिप्रायनामकञ्चात्र नाटकलक्षणमप्युपन्यस्तम्,'अभिप्रायस्तु सादृश्यावद्भुतार्थस्य कल्पना'-इति साहित्यदर्पणोक्तेः ) // 18 // शकुन्तला है ! / (आश्चर्य के साथ ) अहो भगवान्. कण्व तो यह बड़ा ही अनुचित कार्य कर रहे हैं, जो इस कोमलाङ्गो बाला को इस आश्रमोचित धर्म (तपस्या एवं वृक्षों को जल देना आदि कठिन कायों) में लगा रहे हैं ! / ___ क्योंकि स्वभाव से ही सुन्दर, मनोहर शरीर वाली इस बाला को जो ऋषि तपस्या के योग्य बनाना चाहते हैं, वे ऋषि तो मानों नील कमल के कोमल पत्तों की धार से शमी के वृक्ष ( जाँटी, छोंकरा ) को काटना चाहते हैं / ( यहाँ शकुन्तला-नीलोत्पल की कोमल पत्ती के समान है। तपस्याकण्टक युक्त कठोर-शमीवृक्ष के समान है) // 18 // 1 'क्लमं पा० / 2 'समिलतां सेक्तमृषिः' पा० / /