________________ 494 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [सप्तमो सत्त्वसंश्रयगुणोऽपि दृष्यते, ___ कृष्णसर्पशिशुनेव चन्दनम् ? // 18 // तापसी--भद्दमुह ! ण वस्खु एसो इसिकुमारओ। [भद्रमुख ! न खल्वेष ऋषिकुमारकः]। राजा--आकारसदृशं चेष्टितमे वाऽ य कथयति / स्थानप्रत्ययात्त वयमेवंतर्किणः / ( यथाभ्यर्थितमनुतिष्ठन् , बालकस्य स्पर्शमुपलभ्य, स्वगतम्-) आश्रमविपरीताचारेण / त्वया-सुखयत ति---सुखः, सत्वानां संश्रयेग सुखःसत्त्वसंश्रयसुखः = सकलजीवाऽभयदानस्पृहणायः / संयमः = अहिंसादिनियमः / एवम् = इत्थम् / जन्मतः = बाल्यादेव / किमिति = कुतो नु / दृष्यते - विहन्यते / आश्रमवासिजनस्वभावविपरीतं सत्त्वपीडनं बाल्यादेव त्वयि कथमाविर्भूतं 1 / न हि ऋषिकुमाराणामेवंविधा वृत्तिरुचितेति सर्पशिशुना चन्दनमिद त्वया तपोवनमिदं दूषितमिति भावः / [ उपमाऽनुप्रासौ / 'स्वागता वृत्तम्' ] // 18 // आकारेण सदृशम् = आकृत्या तुल्यम् / चेष्टितं = कर्म / आकृतिः, कर्म चास्य 'नायमृषिकुमार' इति कथयतीति भावः / स्थानस्य = आश्रमस्य, प्रत्ययात्-विश्वासात् / ऋषीणां स्थानमेतदत्र च तिष्ठता बालेन तत्कुमारेणैव भवितव्यमिति विश्वासमात्रादेव / एवं तर्को येषान्ते-एवन्तर्किणः-'ऋषिकुमारोऽय स्यादिति तर्कितवन्तो वमिति भावः / अभ्यर्थितमनतिक्रम्य-यथाऽभ्यथितं = तापसीप्रार्थितं सिंह शिशुमोचनम् / अनुतिष्ठन् = कारयन् / कुर्वन् वा / . काले नाग का छोटा बच्चा भी अपने जन्म से ही (छोटा होने पर भी) चन्दन के वृक्ष को दूषित कर देता है / ( चन्दन वृक्ष को भय का स्थान बना देता है), वैसे ही तूं भी अपने जन्म से ही इस तपोवन के विरुद्ध वृत्ति को (प्राणियों को कष्ट पहुँचाने वाली वृत्ति को ) धारण करके, सम्पूर्ण प्राणी मात्र को अभय देनेवाले इन मुनियों के स्पृहणीय, प्रशंसनीय, संयम ( शान्ति ) को क्यों दूषित कर रहा है ? // 18 // तापसी-हे भद्रमुख ! ( हे महाशय ! ) यह ऋषिकुमार नहीं है। राजा-इस बात को तो इसकी आकृति तथा उसी के अनुरूप इसका व्यवहार ही कह रहा है / यहाँ केवल ऋषियों के ही आश्रम होने के कारण ही मैंने इसको ऋषिकुमार समझा था / ( बालक के हाथ से सिंहशावक को छुड़ाता