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________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 46, राजा-मातले ! मा मैक्म् / स खलु मनोरथानामपि दूरवर्ती, यो मे विसर्जनाऽक्सरे सत्कारः ! / मम हि दिवौकसां समक्षमीसनोपविष्टस्यअन्तर्गतप्रार्थनमन्तिकस्थं, जयन्तमुवीक्ष्य कृतस्मितेन / भवत्पराक्रमादिकमवेक्ष्य महेन्द्रोऽनीमा स्वकृता सत्क्रियामलोयसीमेव चिन्तयतीत्यु - भयोरपि तुल्यैवाऽकृतार्थतेत्याशयः / [ विमावनविशेषोक्तिसन्देहसङ्करः / अन्योन्यं / सुन्दरी वृत्तम् ] // 1 // ___मा मैवम् = एवं मा वद, मा वद / मे विसर्जनावसरे = मम प्रस्थापनसमये। . यः सत्कारः, स खलु मनोरथानामपि = मनसोऽपि / दूरवर्ती = अगोचरः। यो महेन्द्रेण मम सत्कार आचरितः, स मनसाप्यचिन्तनोयोऽतुलनीयश्चेति भावः / / सत्कारस्य मनोरथातिभूमित्वमेवाऽऽह-मम हीति / यतः-दिवौकसां = देवानां / 'त्रिदिवेशा दिवौकसः' इत्यमरः। समक्षं = प्रत्यक्षमेव / अर्धापने उपविष्टस्तस्य-अर्द्धासनोपविष्टस्य = महेन्द्रसिंहासनस्य अर्द्धभागे आसीनस्य मम / गले मन्दारमाला हरिणा = इन्द्रेण पिनद्धति-वाक्यमग्रिमश्लोकेन सह सम्बध्यते। अन्तर्गतेति / अन्तर्गता प्रार्थना यस्य तम्-अन्तर्गतप्रार्थनं = हृद्गतमन्दारमालाग्रहणाऽभिलाषशालिनम् / अन्तिके तिष्ठति अन्तिकस्थः, तम्-अन्तिकस्थं 3 इन्द्र भी अपने द्वारा किए गए आपके विशेष सत्कार को भी, आपके महान कार्य ( असुर विनाश ) के सामने कुछ भी नहीं समझ रहे हैं। अतः आप दोनों को (इन्द्रको और आपको) अपने 2 कार्यों में समान ही असन्तोष है // 3 // राजा हे मातले ! ऐसी बात मत कहो। भगवान् इन्द्र ने मुझे बिदा करते समय जो मेरा सत्कार किया है, उसकी तो कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। क्योंकि भगवान् इन्द्र ने मुझे सभी देवताओं के सामने अपने सिंहासन के आधे आसन ( भाग) पर बैठाकर, और मन ही मन उस माला को लेने की इच्छा रखने वाले, पास में ही बैठे हुए, अपने प्रिय पुत्र जयन्त की भी उपेक्षा - 1 'अर्द्धासनोपवेशितस्य' पा० /
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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