________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 419 विदूषकः-भो ! तिणिआ आइदिओ दीसन्ति, सव्वाओ ज्जेव दंसणीआओ, ता कदमा एत्थ तत्थभोदी सउन्तला / [भोः ! तिस्र आकृतयो दृश्यन्ते / सर्वा एव दर्शनीयाः। तत्कतमाऽत्र तत्रभवती शकुन्तला ?] / सानुमती-अणहिण्णो क्यु एसो सहीए स्वस्स मोहचक्खु, इ क्खु ण से गदा पञ्चक्खदं ? / [अभिज्ञः खल्वेष सखीरूपस्य मोघचक्षुः / इयं खलु नाऽस्य गता प्रत्यक्षताम् / सतृष्णः / जातः = संवृत्तोऽस्मि / पूर्व स्वयमुपस्थितामपि तां प्रियां विहाय सम्पति कृत्रिमे तच्चित्रे मनोविनोदं कुर्वन्मूढ एवाऽहमिति भावः / [निदर्शना / काव्यलिङ्गम् / 'वसन्ततिलका वृत्तम्' ] // 18 // __तिस्रः = शकुन्तला-ऽनसूया-प्रियंवदारूपाः। 'दृश्यन्ते' इत्यस्यचित्रे लिखिताः' इति शेषः / दर्शनीयाः = मनोहराः। कतमा = आसां मध्ये का ? / मोघे चक्षुषी यस्यासौ-मोघचक्षुः = निष्फलनेत्रः / (पाठान्तरे-मोहदृष्टिः = जडबुद्धिः / प्रिया के दर्शनों को ही. मैं बहुत (बड़े भाग्य से प्राप्त ) समझा रहा हूँ ! / अतः हे मित्र ! मानों मैं मार्ग में प्राप्त प्रभूत जल से परिपूर्ण बहती हुई नदी को छोड़कर, अब मृग-तृष्णा में ही जल की आशा कर रहा हूँ ! // 18 // विदूषक है मित्र ! इस चित्र में. तो तीन आकृति दीख रही हैं, और ये तीनों ही सुन्दर और दर्शनीय हैं, इनमें श्रीमती शकुन्तलाजी कौन सी हैं ? / सानुमती-मालूम होता है-इसने सखी (शकुन्तला ) के रूपको देखकर अपने नेत्र सफल नहीं किए हैं। अहो ! इसके ये नेत्र ही व्यर्थ हैं, जिसने शकुन्तला के ऐसे मनोहर रूप को अपनी आँखों से नहीं देखा है। अर्थात् इसने मेरी सखी शकुन्तला को देखा नहीं है, तभी तो यह इस प्रकार पछ 1 'भोः ! इदानी तिस्रस्तत्रभवत्यो दृश्यन्ते / सर्वाश्च' पा० / 2 'अनभिज्ञः खलु ईदृशस्य रूपस्य मोहदृष्टिरयं जनः' पा० /