________________ ऽङ्कः] 27 अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 417 तथाहिअस्यास्तुङ्गमिव स्तनद्वयमिदं, निम्नेव नाभिः स्थिता, दृश्यन्ते विषमोन्नताश्च वलयो भित्तौ समायामपि / अङ्गे च प्रतिभाति मार्दवमिदं स्निग्धप्रभावाचिरं, प्रेम्णा मन्सुखमीषदीक्षत इव, स्मेरा च वक्तोव माम् // 17 // नीयया / रेखया = अतिशोभया। छटाविशेषेण / अन्वितं = युक्तमेव / समाये संमाय भूयो-भूयो लिख्यमानमीदं शोभा न जहातीति भावः / रेखालक्षणन्तु 'शिरोनेत्रकरादीनामङ्गानां मेलने सति / कायस्थितियतो नेत्रहरा 'रेखा' प्रकीर्तिता।' इति रत्नाकरे // 16 // अस्या इति / अस्याः = चित्रफल कस्थायाः। समायामपि = अनुन्नताऽऽनतायामपि / भित्तौ = चित्रपटे / इदं स्तनद्वयं-तुङ्गमिव - उन्नतमिव / दृश्यतेस्पष्टं विभाव्यते / नाभिश्च-निम्नेव गम्भीरेव / न तु वस्तुतो निम्नैव / स्थिता = व्यवस्थिता, विभाव्यते / विषमाश्चते उन्नताश्च-विषमोन्नताः = उन्नताऽऽनताः। वलयः = उदरभङ्गविशेषाः। दृश्यन्ते / अङ्गे च इदं = विभाव्यमानं / मार्दवं = सौकुमार्यम् / स्निग्धस्य प्रभावात् = वर्णलेपविशेषस्नेहाधनुषङ्गात् / चिरं = बहुलं / प्रतिभाति = मासरे। प्रेम्णा मन्मुखम्-ईषत् = किञ्चिलजामन्थरम् / ईक्षते इव = विलोकयइसका लावण्य कम नहीं होता है, किन्तु इसके शरीर का लावण्य तो एक विशिष्ट प्रकार की शोना और कान्तिविशेष (छटा) को ही धारण कर रहा है // 16 // जैसे-चित्र की भित्ति ( कपड़ा या कागज आदि आधार ) समतल होने पर भी इस चित्र में इसके ये दोनों स्तन ऊँचे व उभड़े हुए स्पष्ट मालूम हो रहे हैं / नाभिभाग भी निम्न ( नीचा ) साफ मालूम हो रहा है / और ये तीनों बलि (पेट की तीनों लकीरें) भी नीची-ऊँची साफ 2 मालूम हो रही हैं। पालिस, रङ्ग आदिको चिक्कणता और श्रेष्ठता से इसके अङ्गों में कोमलता एवं कान्ति (लावण्य ) भी स्पष्ट प्रतीत हो रही है। और प्रेम से मानों यह मेरा मुख देख रही है, और मुसकराती हुई, मानों मुझसे कुछ कह रही है, या मुझसे कुछ कहना ही चाहती है / अर्थात्-इस चित्र में शकुन्तला के सभी अङ्ग-प्रत्यङ्ग साफ साफ और उन्नत एवं निम्न भी यथोचित रूप से दृष्टिगोचर हो रहे हैं, और वह