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________________ [षष्ठो 382 अभिज्ञानशाकुन्तलम्चूतानां चिरनिर्गतापि कलिका बध्नाति न स्वं रजः, ___ संनद्धं यदपि स्थितं कुरबकं तत्कोरकावस्थया। .. कण्ठेषु स्खलितं गतेऽपि शिशिरे पुस्कोकिलानां रुतं, शङ्क संहरति स्मरोपि चकितस्तूणार्द्धकृष्टं शरम् // 4 // वासन्तिकतरूपजीविभिः / पत्रिभिः = पक्षिभिः, कोकिलादिभिश्च / 'आज्ञा प्रमाणीकृता' इति शेषः / तथाहीति / तरुभिः, पक्षिभिश्च यथा राज्ञः शासनं प्रमाणीकृतं तथा निर्दिशति / चूतानामिति / चूतानाम् = आम्राणां / चिरान्निर्गता-चिरनिर्गताऽपि = चिरादुद्भिन्नाऽपि / कलिका = कोरकः। परन्त्वत्र लक्षणया-मञ्जरी ग्राह्या / न तु कोरको, बाधात् / स्वं रजः = परागं / न बध्नाति = न प्रकटयति / यथा कापि बाला प्रौढावस्थां गताऽपि रजोदर्शनं न धत्ते, तद्वदाम्रमञ्जरीयं बहोः कालादपि स्वं रजो न प्रकटयतीत्यर्थः / किञ्च-संनद्धं = वृन्तादहिनिर्गतमपि / यत् कुरबकं = शोणकुरण्टकपुष्पम् / तत् कोरकावस्थया = कलिकावस्थयैव स्थितं / तन्न विकसतीत्यर्थः / किञ्च शिशिरे = शिशिरत्तौ-गतेऽपि / वसन्तस्य प्रारम्भे च जातेऽपि / पुमांसश्च ते कोकिलाश्च, तेषां-पुस्कोकिलानां = कोकिलयूनां / रुत = पञ्चमशब्दः / कण्ठेषु = तेषां गलबिलेष्वेव / स्खलितं = रुद्धप्रसरं सत् तिष्ठति / कोकिलानां ध्वनिरपि न प्रपञ्चमञ्चतीति भावः / अत एव-स्मरः = कामोऽपि / चकितः = भीत-भीत इव / तूणादई कृष्टं = वसन्त ऋतु में फलने फूलने वाले वृक्षों तक ने भी मानी है, और उन वृक्षों पर बैठने वाले पक्षियों तक ने भी मान ली है। देखो, जैसे आमों की बहुत पहिले से ही निकली हई कलियाँ भी अपने पराग को धारण नहीं कर रही हैं और कुरबक ( कुरण्टक पुष्प ) भी अपने वृन्त से निकल कर अभी तक कलि की अवस्था में ही है, पर वह फूल नहीं रहा है। और शिशिर ऋतु ( जाड़ा) बीत जाने पर भी ( वसन्त के प्रारम्भ हो जाने पर भी) जवान नर कोयलों की कूक उनके कण्ठ के भीतर ही रुकी हुई है। ( वसन्त ऋतु में भी कोयल अपने पञ्चम स्वर से गान नहीं कर रहे हैं / और मैं समझता हूँ कि-भगवान् कामदेव भी चकित और शङ्कित होकर अपने तरकस से आधे
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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