SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 346 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [पञ्चमोराजा-अयि भोः ! किमत्रभवतीप्रत्ययादेवाऽस्मानसम्भृतदौरैरधिक्षिपन्ति भवन्तः / कर्तव्यम् / रहःसङ्गतम् = एकान्तसख्यं-गान्धर्वविवाहादि तु, विशेषात् = विशेषतः परीक्ष्य कर्त्तव्यमित्याशयः। ___ अज्ञातेति / अज्ञातं हृदयं येषान्तेषु-अज्ञातहृदयेषु = अपरिज्ञातशीलेषु जनेषु / सौहृदम् = सख्यम् / एवम् = इत्थं / शकुन्तला-दुष्यन्तवत् / वैरीभवति = परिणामे वैरायैव कल्पते / [ अर्थान्तरन्यासः / अप्रस्तुतप्रशंसा च ] // 27 // अत्रभवतीप्रत्ययात् = शकुन्तलावचनमात्रे विश्वासात् / अस्मान् = जगद्विदितमाहात्म्यान् / 'असम्भृतदोषैरिति.पाठे-सम्पर्कलेशशून्यैरपराधैः / अकृतैरपराधैः / अधिक्षिपन्ति = तिरस्कुर्वन्तीत्यर्थो बोध्यः / 'संयुतदोषाक्षरित्यादिपाठान्तरे तु-सम्यक् युतो दोषो येषु तानि अक्षराणि येषु तैः = दोषाधायकैः क्रूराक्षरैर्वचोभिः / क्षिणुथ = दृषयथ / [ओजो नाम विमर्शसन्ध्यङ्गं दर्शितमेतेन, 'अधिक्षेपाद्यसहनमोजः' इत्युक्तेः राज्ञा शाङ्गरवाधिक्षेपाऽसहनस्य 'अयि भोः' इत्याद्यक्त्या प्रकटनात् ] / में कष्ट देती है / अर्थात्-शकुन्तला ने जो अपने मन से, चञ्चलता के वश हो, इनके साथ गुप्त रूप से यह गान्धर्व विवाह कर लिया है, उसका ही फल यह कष्ट अब इसे मिल रहा है। इसी लिए सम्बन्ध, विशेष कर गुप्त सम्बन्ध-(गुप्तरूपसे-विवाह सम्बन्ध, गान्धर्वविवाह आदि)-तो बहुत सोच समझकर, खूब परख कर, तब करना चाहिए। क्योंकि-अपरिचित हृदय वाले व्यक्ति के साथ हुआ सम्बन्ध अन्त में वैर के रूप से ही परिणत हो जाता है। जैसे शकुन्तला और इस राजा का गुप्त रूप से किया हुआ वह विवाह सम्बन्ध अब इस प्रकार विरोध का ही कारण हो रहा है // 27 // राजा-हे तपस्वियो! क्या इस शकुन्तला के कहने मात्र पर विश्वास करके ही आप लोग असम्भावित दोषों ( जिन दोषों का मेरे में लेश मात्र भी सम्भव नहीं है, उन्हीं वञ्चकता, करहृदयत्व आदि दोषों ) से मुझे यों लान्छित कर रहे हैं ? / 1 'संयुतदोषाक्षरैरस्मान् क्षिणुथ' पा० /
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy