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________________ 322 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [पञ्चमो - तदिदानीमापन्नसत्त्वेयं गृह्यतां सहधर्मचरणाय'-इति / गौतमी-भद्दमुह ! किम्पि वत्तुकामम्हि, ण मे वअणावसरो अस्थि / [ भद्रमुख ! किमपि वक्तुकामाऽस्मि, न मे वचनावसरोऽस्ति ] / राजा-आर्य ! कथ्यताम् ! दुष्यन्तलक्षणं योग्यं वधूवरं स्वयं मिथो घटयन् विधिश्चिरप्ररूटमसमानशीलवधूवरमेलनव्यसनित्वरूपमपवादस्वं मार्जितवानिति भावः / [समोऽलङ्कारः / काव्यलिङ्गम् / उत्प्रेक्षाऽनुप्रासौ / 'वंशस्थं वृत्तम्' ] // 16 // सत्त्वमापन्ना-आपन्नसत्त्वा / यद्वा-आपन्नं सत्त्वं यां-मा-आपन्नसत्त्वा = गर्भिणी ) "आपन्नसत्वा स्यात् गविण्यन्तर्वती च गर्भिणी' इत्यमरः) सह = सहैव ) धर्मस्य चग्णाय = गृहस्थाश्रमधर्मगलनाय / सपत्नीकस्यैव धर्मेऽधिकारात् / भद्राणां मुखमिव मुखं यस्य तत्सम्बुद्धा-भद्रमुख ! = हे सुन्दर / हे कल्याणमूर्ते / हे मजनशिरोमणे ! भद्रं मुखं, मुखे वा यस्येति वा / वचनस्य = वक्तव्यस्य / अवसरः = प्रस्तावः / 'प्रस्तावः स्यादवसरः' इत्यमरः / तुल्य रूप वय गुण शील वाले वर-वधू तो प्रायः नहीं मिलते हैं / अतएव लोग विधाता की इसके लिए निन्दा ही किया करते हैं / परन्तु तुम यदि सत्कार के योग्य हो, तो मेरी यह शकुन्तला सत्काररूप है, अतः तुमारा दोनों का समान रूप गुणवालों का यह जोड़ा बड़े भाग्य से विधाता ने बहुत दिनों बाद स्वयं ही मिला दिया है। अतः विधाता सदा की तरह निन्दा के पान न होकर, प्रशसा के ही पात्र हुए हैं। अर्थात्-हमें भी तुम दोनों का किया हुआ यह विवाह स्वीकार है, क्योंकि आप हमारे मन के लायक ही वर हो // 16 // और अब यह आपकी पत्नी शकुन्तला गर्भिणी है, अतः इसको धर्माचरण के लिए अपने पास रखिए। गौतमी-हे भद्रमुख ! (हे मधुरभाषी, कल्याणमूर्ति, राजन् !) मैं भी कुछ कहना चाहती हूँ, पर मुझे कहने का अवसर ही नहीं मिल रहा है। राजा-हे आर्थे ! कहिए, आप क्या कहना चाहती हैं ? /
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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