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________________ www 306 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [पञ्चमोराजा-सखे ! गच्छ, नागरिकवृत्त्या सान्त्वयैनाम् / विदूषकः-का गई ? (-इति निष्क्रान्तः)। .. [का गतिः ? ( इति निष्क्रान्तः )] / राजा-(स्वगतम्-) किन्नु खलु गीतमेवंविधमाकर्ण्य इष्टजनविरहादृतेऽपि बलवदुत्कण्ठितोऽस्मि ? / अथवा- पातयति, तथा भवता कुपितहसवतीप्रसादनकर्मणि विदूषकोऽहंवराकः पातित इति भावः / 'परहस्ताभ्या' मित्यादिकं लौकिकमाभाणकम् / वीतरागस्य = मुनेः / त्यक्तानुरागस्य च / अशरणस्य = त्यक्तगृहादिपरिग्रहस्य, शरणान्तररहितस्य च / न मोक्षः = न कैवल्यप्राप्तिः / न विपत्तिमोक्षश्च / नागरिकवृत्त्या = विदग्धव्यवहारेण | चातुर्येणेति यावत् / का गतिः = राजवचनमनुल्लङ्घनीयं, तद्गच्छामि हंसवीं प्रसादयितुम् / एवंविधं = प्रियाविस्मरणोपालम्भगर्भम् / गीतं = गानम् / इष्टजनस्य विरहस्तस्मात् = प्रियावियोगात् / ऋते = विनाऽपि / बलवत् = सुदृढम् / किंतु = कस्मात् / उत्कण्ठितोस्मि = जातोत्कण्ठोस्मि / राजा दुर्वास:शापेन शकुन्तलामपि नैव स्मरतीति तत्त्वम् / अशरण ( अनिकेत, गरीब ) मेरे पीछे भी आपने हसवती रूपी चुडैल-आफत लगा दी है / इससे मेरा बचना कठिन ही है / राजा-हे मित्र ! तुम जाओ, और अपनी चतुराई से हंसवती को सान्त्वना (धीरज ) देकर किसी तरह प्रसन्न करो / विदूषक-क्या उपाय है ?, जाना ही पड़ेगा। __ (जाता है)। राजा-(मन ही मन ) इस प्रकार हसवती के विरह-सूचक गीत को सुनकर, किसी अपने इष्ट जनके वियोग के बिना भी मैं क्यों अत्यन्त उत्कण्ठितसा हो रहा हूँ ? / यह क्या बात है ? / मेरा तो कोई प्रियजन भी बाहर नहीं है, जिसके विरह से ही मुझे ऐसी उत्कण्ठा ( उद्वेग ) हो ? ! यह तो बड़े आश्चर्य की बात है ? / ( यद्यपि-शकुन्तला के विरह के कारण ही राजा की यह दशा हो रही है, पर राजा को दुर्वासाजी के शाप के कारण शकुन्तला तो याद आनहीं रही है, केवल उसे अपना मन ही विरही के मन की तरह उत्कण्ठित सा मालूम हो रहा है। पर किसके लिए ऐसा हो रहा है-यह उसे शाप के कारण ज्ञात नहीं हो रहा है ) / अथवा
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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