________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 277 एषा प्रियेण विना गमयति रजनीं विषाददीर्घतराम् / गुर्वपि विरहदुःखमाशाबन्धः साहयति] // 17 // अनसूया-सहि ! अस्समपदे ण अस्थि को वि चित्तवन्तो जो तए विरहिजन्तो ण ताम्मदि / पेक्ख दाव पुडइणि-वत्तन्तरिअं वाहरिओ वि ण हु वाहरेइ पिरं / मुह उन्वूडमिणालो तइ दिट्टि देइ चक्काओ // 18 // [ सखि ! आश्रमपदे नास्ति कोऽपि चित्तवान् यस्त्वया विरहय्यमाणो न ताम्यति / प्रेक्षस्व तावत्-। मा एवं मन्त्रय = मैवं कथय / एषाऽपोति / एषापि चक्रवाकी प्रियेण विना, विषादेन = दुःखेन / दीर्घतराम् = आयामवतीं त्रियामां नाम सकलां गत्रिं गमयति / यतो गुर्वपि दुःखम् / आशाबन्धः = सङ्गमाशातन्तुः। साहयति = मर्षयति / [ अर्थान्तरन्यासः] // 17 // चित्तवान् = प्राणी, चेतनः = सजीवः / विरहय्यमाणः = सन्त्यज्यमानः सन् / न ताम्यति = न ग्लायति / न खेदमनुभवति / पशुपक्षिलतागुल्मपादपादयोऽपि खिन्नाः, का कथा मानुषाणामिति भावः / से अधिक लम्बी मालूम होने वाली संपूर्ण रात्रि को भी केवल पति मिलन की आशा से ही बिता देती है। क्योंकि गुरुतर दुःसह विरह के दुःख को भी आशातन्तु ही सहन करा देता है। [चक्रवाक पक्षी और चक्रवाकी प्रायः जलाशयों पर रहते हैं, और दिन भर तो वे एक साथ हो रहते हैं, पर रात्रि को दोनों का विरह हो जाता है, चक्रवाकी इस तट पर आती है, तो चक्रवाक उस तट पर चला जाता है। चकवा इस तट पर आता है, तो चकवी झट उड़कर उस तट पर चली जाती है। रात भर इसी प्रकार वे विरह में बिताते हैं / इसी प्रकार हे सखि ! तूं भी मिलने की आशा से ही इस विरह के काल को बिता दे / घबड़ा मत / शीघ्र ही तेरा भी तेरे पति के साथ मिलन होगा // 17 // .. अनसूया-हे सखि ! इस आश्रम में ऐसा कोई भी चित्तवान् = प्राणीनहीं है, जो तेरे विरह से उदास और व्याकुल नहीं हो रहा हो। देख तो कमलिनी के पत्तों की ओट से बुलाती हुई अपनी प्रिया चक्रवाकी (चकवी)