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________________ 276 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [चतुर्थो मिति . शकुन्तला-(जनान्तिक-) हला ! पेक्ख / गलिणीपत्तन्तरिदं वि सहभर भदेक्खन्ती आदुरा चक्कवाई आरडदि-दुक्करं अहं करोमि त्ति / [(जनान्तिक-)हला ! प्रेक्षस्व नलिनीपत्रान्तरितमपि सहचरमपश्यन्ती आतुरा चक्रवाकी आरटति–'दुष्करमहं करोमीति ] / अनसूया-सहि ! मा एवं मन्तेहि / [ सखि ! मैवं मन्त्रयस्व ] / एसा वि पिएण विणा गमेइ रमणि विसाअदीहअरं / गरुअं पि विरहदुक्खं आसाबन्धो सहावेदि // 17 // ( पाठान्तरे-) नलिनीपत्रान्तरितमपि = पद्मिनीदलपिहितमपि / सहचरं = प्रियम् / आतुरा = विरहविह्वला। आरटति = करुणं रौति / पाठान्तरे-आरौति = क्रन्दति / दुष्करं = प्रियं विनाऽवस्थानरूपं कष्टं कर्म / अहं = चक्रवाकी / पत्रान्तरितेऽपि प्रिये यदहं जीवामि तन्मेऽनुचिमिति चक्रवाकी विरौति, अहं पुनः शकुन्तला इयद्रवत्तिनि प्रियेऽपि जीवामीति महन्मे कठिनं हृदयमिति भावः / [यहाँ से लेकर १८वें श्लोक तक का यह शकुन्तला-अनसूया संवाद सार्वत्रिक नहीं है / वङ्गदेशीय किसी 2 पुस्तक में ही देखा जाता है! शकुन्तला-(अलग से) हे सखि ! देख तो, कमलिनी के पत्तों की ओट में छिपे अपने सहचर ( प्यारे पति ) चकवे को नहीं देखकर भी यह चक्रवाकी ( चकवी ) आतुर ( व्याकुल ) हो बोल रही है, कि-'अपने प्रिय के वियोग में भी मैं जो जी रही हूँ--यह मैं अति कठिन कार्य कर रही हूँ'। भावार्थ- केवल पत्ते की ही आड़ में अपने प्राणप्यारे के रहने पर भी चक्रवाकी उसके विरह में बिकल हो अपने जीने को भी कठिन कार्य कह रही है, पर देख मैं तो कितनी कठोर हूँ-जो अपने प्रिय से इतनी दूर रहकर भी जी रही हूँ। अर्थात् मेरा हृदय तो वज्र से भी कठोर है, जो प्रिय के विरह में भी नहीं फट रहा है। अनसूया-हे सखि ! ऐसा मत सोच, ऐसा मत कह)। क्योंकि देख,यह चकवी तो अपने प्रिय के विना उसके वियोग में भी विषाद और शोक 1 इत आरभ्य 18 श्लोकपर्यन्तं पाठान्तरमेतत्वचिन्न / 2 'आरौति' पा० /
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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