________________ 262 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [चतुर्थोगौतमी-जादे ! वरो वस्तु एसो, ण आसिसो। [जाते ! वरः खल्वेषः, 'नाऽऽशीः] / कण्वः-वत्से ! इतः सद्योहुनानग्नोन् प्रदक्षिणीकुरुष्व। . (सर्व-तथा कारयितुं परिक्रामन्ति ) / कण्व:--(ऋक्छन्दसाऽऽशास्ते - ) २वत्से ! अमी वेदि परितः क्लृष्टधिष्ण्याः , समिद्वन्तः, प्रान्तसंस्तीर्णदर्भाः / गर्भाङ्गम्-'तत्त्वोपलब्धिरिष्टस्य क्रम इत्यभिधीयते'-इत्युक्तलक्षणं दर्शितम् / 'आशीरिष्ट जनाऽऽशंसे ति नाट्यालङ्कागेऽपि आशीर्दर्शित:] / / 9 // __वरः = वरदानमिदम् / वरप्रदानञ्चाऽवश्यफलदं / नाऽऽशीः = केवलं गुरुजनस्य शुभप्रार्थनामानं नेदम् / सद्यो हुतान् = इदानीमेव शास्त्रोक्तविधिना हव्येन सन्तर्पितान् / ऋक्छन्दसा = ऋच्छन्दोरचितवाक्येन / अयं पाठः क्वाचित्को, न सार्वत्रिकः। अमी इति / वेदि = परिष्कृतभूमिम् / परितः = सर्वतः / क्लृप्तं धिष्ण्यं यैर्येषां और जैसे ययाति से शर्मिष्ठा ने सम्राट पूरु को जन्म दिया था, वैसे ही तूं भी दुष्यन्त से चक्रवर्ती पुत्र ( भरत ) को प्राप्त कर / ( राजा ययाति के दो रानी थीं-देवयानी और शमिष्ठा / उनमें शर्मिष्ठा उसको ज्यादा प्यारी थी) // 9 // गौतमी-हे पुत्रि ! यह इनका वरदान है, इसे केवल आशीर्वाद मात्र ही मत समझना। कण्व-हे वत्से ! इधर अग्निहोत्र शाला में स्थित सद्यःहुत ( अभी हवन की हुई- ) ये तीनों अग्नि विराजमान हैं, इनकी तूं प्रदक्षिणा कर / ( इनकी परिक्रमा कर ) / [सब लोग-शकुन्तला को अग्नियों की परिक्रमा कराने के लिए ले जाते हैं / - कण्व-(ऋग्वेद के मन्त्र की छाया से विरचित वाक्य से आर्शीवाद देते हैं वेदि के चारों ओर विराजमान, समिधाओं से प्रज्वलित एवं देदीप्यमान, 1 'नाऽऽशिषः' पा०। 2 अयं पाठः क्वचिन्न /