________________ 256 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [चतुर्थोगौतमी-वच्छ हारीद ! कुदो इदं आसादिदं ? / [वत्स ! हारीत ! कुत इदमासादितम् ? ] 1 . हारातः-तातकण्वप्रभावात् / गौतमी-किं माणसी सिद्धी ? / [किं मानसी सिद्धिः ?] / हारीतः-न खलु / श्रूयताम् / तत्रभवता कण्वेन वयमाज्ञप्ताः'शकुन्तलाहेतोर्वनस्पतिभ्यः कुसुमान्याहरतेति / ततश्चक्षोमं केनचिदिन्दुपाण्डु तरुणा माङ्गल्यमाविष्कृतं, __निष्ठ्यतश्चरणोपरागसुभगो लाक्षारसः केनचित् / दित = लब्धम् / प्रभावात् = सामर्थ्यात् / मानसी = मनःसङ्कल्पमात्रजा / सिद्धिः = योगसिद्धिः / ऐश्वर्यविजृम्भितम् / प्राप्तिः। न खलु = नैव मानसी सिद्धिरियम् / वनस्पतिभ्यः = वृक्षेभ्यः / आहरत = आनयत / क्षौममिति / केनचित्-तरुणा = वृक्षेण / माङ्गल्यं = मङ्गलकर्मयोग्यम् / इन्दुरिव पाण्डु इन्दुपाण्डु = चन्द्रपाण्डुरं / चन्द्रधवलम् / क्षोम = महा दुकूलम् / आविष्कृतं = प्रकटीकृतं / प्रदत्तं / केनचित् = केनापि तरुणा च / चरणयोरुपरागे सुभगः-चरणोपरागसुभगः = पादलेपमनोहरः / लाक्षारसः = अलक्तकरसः। निष्ट्यतः गौतमी-हे वत्स हारीत ! ये आभूषण तुम्हें कहाँ से प्राप्त हुए है। हारीत-ये तात कण्व के ( तपस्या ) के प्रभाव से ही प्राप्त हुए हैं। गौतमी-क्या ये गहने कण्व जी ने अपनी मानसी (योग) सिद्धि के प्रभाव से स्वयं उत्पन्न किए हैं / हारीत-नहीं नहीं, सुनिए-तात कण्व ने हम लोगों से कहा कि-तुम लोग जाकर आश्रम के वृक्षों से शकन्तला के योग्य आभरणों के लिए पुष्प आदि माँग कर ले आओ। तब हम लोग वृक्षों के पास गए / तब किसी वृक्ष ने तो चन्द्रमा की तरह जर्द ( कुछ 2 पीले व सफेद स्वच्छ चन्दनी ) रंग के माङ्गलिक वस्त्र ( साड़ियाँ ) आविर्भूत करके हमें दिए, और