________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् सख्यो-सहि ! ण जुत्तं मङ्गलकाले रोदिहुँ / [खि ! न युक्तं मङ्गलकाले रोदितम् / (-इत्यश्रूणि प्रमृज्य नाट्येन प्रसाधयतः)। प्रियंवदा-सखि ! आहणारिहं दे रूअं अस्समसुलहेहिं पसाहणेहि विप्पआरीअदि / [ सखि ! आभरणाहं ते रूपमाश्रमसुलभैः प्रसाधनैर्विप्रकार्यते ] / (प्रविश्य, आभरणहस्त:-) ऋषिकमार:-इदमलङ्कारजातम् / अलङक्रियतामायुष्मती। (सर्वाः-विलोक्य विस्मिताः ) / मण्डलनस्य लाभ इत्याशयः / प्रमृज्य = विशोध्य / आभरणाह = कनकभूषणाहम् / प्रसाधनैः = अङ्गरागादिभिः। विप्रकार्यते = तिरस्क्रियते, अशोभनतां नीयते / नैतान्याभरणानि तवोचितानीत्याशयः। एतेनालङ्कारहस्तकुमारागमनं सूचितम् / 'नाऽसूचितस्य प्रवेशोऽस्ती'त्युक्तेः। ... अलङ्कारजातम् = आभरणसमूहः। 'गृह्यतां तावत्' इति शेषः / आश्रमे कुतः खल्वेषां सम्भव इति सर्वासां विस्मयः / इदम् = अलङ्कारजातम् / आसा- . दोनों सखियाँ-हे सखि ! इस मंगल समय में (पति गृह यात्रा में ) तेरा-रोना ठीक नहीं है / ( आँसू पोंछ कर दोनों ही उसका शृङ्गार करने का अभिनय करती हैं)। प्रियंवदा-हे सखि ! यह तुम्हारा रूप तो नाना प्रकार के रत्नों के गहनों के ही योग्य है, इस प्रकार आश्रम सुलभ फूल पत्तियों आदि से शृङ्गार करने से तो यह तेरा सौन्दर्य उलटा बिगड़ता ही है। अर्थात् तेरे शरीर के लायक ये फूल-पत्तियों के गहने नहीं है। इसके योग्य तो राजोचित रत्नाभरण ही हो सकते हैं / ये फूल-पत्तियाँ तो तेरे शरीर पर अच्छी ही नहीं लगती हैं। [रत्नजडित आभूषणों को हाथ में लिए हुए ऋषि कुमार का प्रवेश] / ऋषिकुमार-लो, ये नाना प्रकार के रत्नों से जड़े हुए आभूषण हैं, इनसे आयुष्मती (चिरजीविनी ) शकुन्तला का शृङ्गार करो। [सब सखियाँ-दुर्लभ एवं बहुमूल्य उन आभूषणों को देखकर आश्चर्य चकित होती हैं /