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________________ अभिज्ञान-शाकुन्तलम्- [प्रथमोकृष्णमारे ददच्चक्षुस्त्वयि चाऽधिज्यकामुके / मृगाऽनुसारिणं साक्षात्पश्यामीव पिनाकिनम् // 6 // कृष्णसार इति / कृष्णसारे = पुरो धावमाने हरिणविशेषे, ज्यामधिगतम्अधिज्यम् , अधिज्यं कार्मुकं यस्य, तम्मिन्-अधिज्यकार्मुके = अध्यारोपितगुणशालिधनुर्दधाने, त्वयि च = दुष्यन्ते च, चक्षुः = लोचनं, ददत् = अहं निक्षिपन् , मृगमनुसरति- तच्छीलस्तं-मृगानुसारिणं = मृगरूपधरं-दक्षप्रजापतियज्ञमनुसरन्तं, साक्षात्पिनाकिनमिव = साक्षाद्धनुष्पाणिं भगवन्तं शिवमि, भवन्तं = त्वां, पश्यामि = विभावयामि / तर्कयामि / 'पिनाकोऽजगवं धनु' रित्यमरः / दक्षयज्ञविध्वंसवेलायां पिनाकपाणिं हरं दृष्ट्वा यज्ञो मृगरूपमास्थाय पलायाञ्चक्रे, तञ्च शिवोऽनुससारेति-पुराणकथाविदः। इत्थञ्च राज्ञोऽपि मृगानुसारिणः शिवेनौपम्यं घटत एव / यद्वा'प्रजानाथं नाथ ! प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं, गतं रोहिद्भुतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा / धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं वसन्त तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः // ' -इति शिवमहिम्नःस्तोत्रे पुष्पदन्तोपन्यस्तो ब्रह्मरुद्रयोम॑गव्याधवृत्तान्तोऽत्राऽनुसन्धेय इति दिक् / मृग की ओर देखकर, तथा चढ़े हुए धनुष को धारण किए हुए आपको देखकर, तो मुझे-मृग का पीछा करते हुए, पिनाक (धनुष ) धारण किए हुए, साक्षात् भगवान् शिवजी का ही स्मरण होता है। अर्थात् शिवजी ने मृगरूपधारी ब्रह्माजी का किसी भारी अपराध में उनको दण्ड देने के लिए धनुषबाण हाथ में ले पीछा किया था, उसी प्रसङ्ग का मुझे आपको इस प्रकार हरिण का पीछा करते हुए देखकर ध्यान हो जाता है ! जैसा शिवमहिम्नःस्तोत्र में कहा भी हैप्रजानाथं नाथ ! प्रसभमनिकं स्वां दुहितरं, गतं रोहिद्भुतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा। " धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं,. वसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः // '
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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