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________________ m 238 . अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [चतुर्थो . (ततः प्रविशति सुप्तोत्थितः कण्वशिष्यः-) - शिष्यः--वेलोपलक्षणार्थमादिष्टोऽस्मि तत्रभवता प्रवासात् प्रतिनिवृत्तेन कण्वेन / तत् प्रकाशं निर्गत्याऽवलोकयामि कियदवशिष्टं रजन्या इति ? / ( परिक्रम्यावलोक्य च-) हन्त ! प्रभाता रजनी / तथाहियात्येकतोऽस्तशिखरं पतिरोषधीना ' माविष्कृतोऽरुणपुरस्सर एकतोऽकः / विष्कम्भक इति / भूतस्य-शकुन्तलापरिणयस्य, भविष्यतः-शापादिवृत्तान्तस्य च सूचनादयं विकम्भको नामाऽर्थोपक्षेपकः / शुद्धश्वाय, प्राकृतभाषिसखीरूपपात्रद्वयरचितत्वात् / 'समाप्त' इति शेषः। , ततः = सखीनिर्गमनान्तरं / पूर्वं सुप्तः पश्चादुत्थितः-सुप्तोत्थितः = जागरितः / निद्रापूर्णितलोचनः / वेलोपलक्षणार्थ = कालपरिज्ञानार्थं / प्रवासात् = यात्रातः / प्रतिनिवृत्तेन = आगतेन / प्रकाशं = निरावरणं प्रदेशं / ( 'खुले मैदान में)। रजन्याः = राज्याः। कियत् = कियानंशोऽवशिष्यते / प्रभाता = व्युष्टा / गता। हन्त ! इति खेदे। यातीति / ओषधीनां = फलपाकान्तानां सस्यादीनां / पतिः = ईश्वरः। चन्द्रः। 'ओषध्यः फलपाकान्ताः' इति, 'ओषधीशो निशापतिः' इति चामरः / एकतः = [विष्कम्भक = इधर उधर की बातों की आवश्यक सूचना, समाप्त]। . [इसके बाद सोकर उठे हुए कण्व के शिष्य का प्रवेश] / शिष्य-प्रवास से लौट कर आए हुए कुलपति पूज्य कण्वजी ने मुझे समय ('रात्रि कितनी बाकी है' यह ) जानने की आज्ञा दी है। अतः बाहर निकल कर देखू-रात्रि कितनी और बाकी रही है ?' / (कुछ चलकर, आकाश की ओर देखकर ) ओह ! रात्रि तो बीत हो चुकी है और अब प्रभात होना ही चाहता है / क्योंकि देखो. एक ओर (पश्चिम दिशा में) तो यह ओषधीश भगवान् चन्द्रमा अस्ताचल पर जा रहे हैं और दूसरी ओर (पूर्व विशा में) अरुणसारथि भगवान् दिवाकर
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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