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________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 227 प्रियसखी शकुन्तला अनुरूपभर्तृभागिनो 'संवृत्ता, तथापि में न निवृतं हृदयम् / प्रियंवदा--[कथं विअ ? ] | [ कथमिव ?] / अनसूया--अज सो राएसी इट्टिारिसमत्तीए इसिहिं विसज्जि हो अत्तणो णअरं पविसअ अन्तेउरसमागमादो इमं जणं सुमरेदि ण वेत्ति / . [अद्य स राजर्षिरिष्टि परिसमाप्या ऋषिभिर्विसर्जित आत्मनो नगरं प्रविश्य अन्तःपुरसमागमादिमं जनं स्मरति, नवेति ?] / प्रियंवदा--एस्थ दाव वीसत्था होहि / णहि तादिसा आकिदिबिसेसा गुणविरहिणो होन्ति / एत्ति उण चिन्तणोअं,-जादो तोत्थजात्तादो पडिणि उत्तो इमं सुणिभ ण आणे किं पडिवजिस्सदि त्ति / निर्वृत्तं कल्याणं यस्याः सा निर्वृत्तकल्याणा = जातविवाहमङ्गला / 'कल्याणं मङ्गलेऽपि चेति विश्वः / अनुरूपं = योग्यं, भर्तारं = दुष्यन्त, गच्छति तच्छोलाअनुरूपभर्तगामिनी / संवृत्ता = जाता। निर्वृतं = सुखित / राजर्षिः = दुष्यन्तः / इष्टिपरिसमाप्त्या = यज्ञस्य समाप्ततया। विसर्जितः - अनुज्ञातनगरगमनः / आत्मनो नगरं = हस्तिनापुरम् / अन्तःपुरस्य = अवरोधललनाजनस्य / समागमात = संप्राप्तः / इमं = शकुन्तलालक्षणम् / अत्र = अस्मिन् विषये। विश्वस्ता=3 गया, और इस प्रकार शकुन्तला ने अपने, योग्य भर्ती को स्वयं ही प्राप्त कर लिया, फिर भी मेरा मन निश्चिन्त और प्रसन्न नहीं हो रहा है। प्रियंवदा-क्यों ? अब किस बात की चिन्ता कर रही हो ? / अनसूया-यही कि-आज राजर्षि दुष्यन्त को इष्टि ( यज्ञ ) की समाप्ति हो जाने से ऋषियों ने अपने नगर को जाने की स्वीकृति देदी है, अतः वह राजर्षि दुष्यन्त अपनी राजधानी में जाकर अन्तःपुर की एक से एक सुन्दर रानियों के साथ भोग विलास में लिप्त होकर, सखी शकुन्तला को याद करेगा, या नहीं;-यही चिन्ता मुझे अभी भो व्याकुल कर ही रही है ! प्रियंवदा-हे सखि ! इस बात की ओर से तो तूं बिलकुल निश्चिन्त रह / 1 'संवृत्तेति निर्वृतं मे हृदयं, तथाप्येतावच्चिन्तनोयम्' पा० /
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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