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________________ 206 अभिज्ञान-शाकुन्तलम् [तृतीयोअनिर्दयोपभोगस्य रूपस्य मृदुनः कथम् / कठिनं खलु ते चेतः शिरीषस्येव बन्धनम् / / 30 / / शकुन्तला-एदं सुणिअ ण मे अस्थि विभवो गच्छिदं / [इदं श्रुत्वा न मेऽस्ति विभवो गन्तुम् / राजा-सम्प्रति प्रियाशून्ये किमस्मिल्लतामण्डपे करोमि ? / ... ( अग्रतोऽवलोक्य-- ) हन्त ! व्याहतं मे गमनम् / - अनिर्दयोपेति / अनिर्दयमुपभोगो यस्य तस्य-अनिर्दयोपभोगस्य = मन्दमन्दमुपभोग्यस्य / मृदुनः = कोमलस्य / ते = तव / रूप्यते इति रूपं, तस्यरूपस्य = शरीरस्य / शिरीषस्य = कुसुमविशेषस्य / बन्धनमिव = वृन्तमिव / कठिनं - कठोरं। चेतः = चित्तं / कथं खलु 1 = कथं जातम् ? / मृदुपभोगस्य वपुषोऽसदृशं ते कठिनं हन्त ! स्वान्तं कथं सम्पन्नम् / [ विभावनाविशेषोक्त्योः सन्देहसङ्करः / 'शिरीषस्येवेत्युपमा च] // 30 // __ इदं = श्रुत्वा = उपालम्भपरमिदं वाक्यं श्रुत्वा / गन्तुं-विभवः = सामर्थ्य, नास्ति / सम्पति = इदानीं / प्रियया शून्ये प्रियाशून्ये = शकुन्तलाविरहिते / लतामण्डपे = वानीरलतामण्डपे / व्याहतं = केनापि वस्तुनाऽवरुद्धं / प्रियावलयस्य लाभादित्याशयः। हे प्रिये ! बड़ी ही मृदुता से उपभोग करने योग्य, एवं अत्यन्त ही मृदुमनोहर ऐसे सुन्दर रूप को पाकर भी, तेरा हृदय वैसे ही कठोर है, जैसे शिरिस के कोमल पुष्प का वृन्त (बन्धनभाग, जोड़ का भाग) कठोर होता है // 20 // शकुन्तला-उपालम्भपरक इनके ऐसे करुण वाक्यों को सुनकर मेरी तो शक्ति इनको छोड़कर अन्यत्र जाने की नहीं हो रही है। राजा-अब प्रिया से शून्य इस लतामण्डप में मैं क्या करूं? / (जाता है / आगे की ओर देखकर-) हा हन्त ! मेरी तो गति रुक गई / ( अर्थात् पैर में किसी वस्तु की ठोकर लगने से मेरी गति रुक गई ) / 1 'अनिर्दयोपभोग्यस्य' पा०
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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