SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 205 शकुन्तला--( स्तोकमन्तरं गत्वा, आत्मगतम्- ) हद्दी हद्दी ! इमं सुणिभ ण मे चलणा पुरोमुहा पसरन्ति / भोदु / इमेहि पजन्तकुरुवएहिं ओवारिदसरीरा भविअ पेक्खिस्सं दाव से भावाणुबन्धं / [ ( स्तोकमन्तरं गत्वा, आत्मगतं ) हा धिक् ! हा धिक् ! इदं श्रुत्वा न मे चरणौ पुरोमुखौ प्रसरतः / भवतु / एभिः पय॑न्तकुरबकैरपवारितशरीरा भूत्वा प्रेक्षिष्ये तावदस्य भावानुबन्धम् ] / राजा--कथमेवं प्रिये ! अनुरागैकरसं मामुत्सृज्य निरपेक्षव गताऽसि ! / मूलाग्रभागं / छायेव = अनातप इव / त्वं = भवती / दूरमपि = गच्छन्ती = दूरतरमपगच्छन्त्यपि / मे= मम / हृदयं = स्वान्तं / न जहासि = न त्यजसि / अतो विस्मरणवात्तैव कुत इत्याशयः / [ उपमा ] // 29 // इदं श्रुत्वा = ईदृर्श स्नेहानुबन्धं विज्ञाय / पुरोमुखौ = गन्तव्यदिगभिमुखौ / अग्रतः / न प्रसरतः = न चलतः। पर्यन्ते स्थिताः कुरबकाः-पर्यन्तकुरबकाः, तै:-पर्यन्तकुरबकैः = परिसरवर्त्ति कुरबकैः / अपवारितं शरीरं यस्याः सा-अपवारितशरीरा = तिरोहिताङ्गयष्टिः / भावस्यानुबन्ध-भावानुबन्धम् = अनुगगसंबन्धं / तथा कृत्वा = लतापिहिततनुभूत्वा / अनुराग एव एको रसो यस्यासौ, तम्-अनुरागैकरसे = प्रणयपेशलं / माम् = ईदृशी दशामुपगतम् ! कामातुरम् / एवम् = अगणितनिर्बन्धम् / उत्सृज्य = विहाय / निरपेक्षव = निःस्ने हैव / से उसी तरह तुम दूर नहीं हो सकती हो, जिस तरह सायंकाल की वृक्षकी छाया वृक्ष से बहुत दूर तक चली जाने पर भी, लम्बी हो जाने पर भी वृक्ष की जड़ को कभी नहीं छोड़ती है। ( सायंकाल में वृक्षों की छाया बहुत लम्बी हो जाती है, दूर तक चली जाती है, परन्तु फिर भी वृक्ष के मूल भाग-जड़को वह कभी नहीं छोड़ती है ) // 29 // शकुन्तला-( थोड़ी दूर जाकर, मन ही मन ) हा धिक् ! हा धिक ! (हाय ! हाय !) इस राजा दुष्यन्त के मुख से ऐसे प्रेममय वचन सुन करके तो मेरे पैर आगे की ओर बढ़ते ही नहीं हैं / अतः इस लताकुञ्जकी परिधि के पास के (वृतिके) कुरबक के पौधों की आड़ में होकर मैं इनके प्रेम-भाव को देखती हूं। / राजा-हे प्रिये ! इस प्रकार तेरे अनुराग में लवलीन हुए मुझको ऐसे ही छोड़कर निरपेक्ष होकर तूं कैसे चली गई है।
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy