________________ 202 अभिज्ञान-शाकुन्तलम् तृतीयो (शकुन्तला--गच्छत्येव ) / राजा---न कथमात्मनः प्रियं करिष्ये / . (-उपसृत्य पटान्तमवलम्बते ) / शकुन्तला--पोरव ! रक्ख रक्ख विणअं, इदो तदो इसिओ सञ्चरन्ति / मदनेनैव = कामेनैव / आबाध्यन्ते = पीड्यन्ते / इति न खलु = नैवमेतत् / किन्तु क्षिप्तः कालो याभिस्ताः-क्षिप्तकालाः = मौग्भ्येन व्यतिक्रान्तसुरतसुखसमयाः सत्यः / मनसिजमपि = मदनमपि / आबाधन्ते = पीडयन्ति / बलवत्यां सम्भोगसङ्गमेच्छायां सत्यामपि, मदनेन ताड्यमाना अपि च-कालं क्षिपन्त्यः, स्वाङ्गदाने कातरा, मदनमपि विडम्ब्य पीडयन्तीति भावः। [अन्योन्यमलङ्कारः / क्षिप्तकालाः सत्यो मदनेन पीड्यन्ते इति पदार्थ हेतुकं काव्यलिङ्गम् / शकुन्तलाप्रस्तावे मुग्धासामान्येन कथनादप्रस्तुतप्रशंसा च / मन्दाक्रान्ता वृत्तं / / / 27 / / गच्छत्येव = निवर्त्यमानाऽपि गन्तुं प्रवर्त्तत एव / आत्मनः प्रियं = स्वेप्सितं / सम्भोगार्थ प्रियाऽवरोधनात्मकम् / कथं न करिष्ये = करिष्याम्येव / __उपसृत्य = गत्वा / पटान्तं = वल्कलाञ्चलम् / अवलम्बते = गृह्णाति / विनयं = अङ्गों को छूने भी नहीं देनेवाली), अप्राप्तपतिसंसर्गसुखा मुग्धा कुमारियाँनवयुवतियाँ-अवसर पाकर केवल कामदेव से ही ये पीडित होती हैं, यह बात नहीं है, किन्तु सुरत सुख देने में विलम्ब-कालक्षेप-करके ये स्वयं कामदेब को भी पीडित करती हैं / अर्थात्-कामदेव के अनेक प्रयत्न करने पर भी, पति के साथ आनन्द लेने की इनकी स्वयं इच्छा रहने पर भी, ये कुमारियाँ (मुग्धा नववधू तथा युवति कुमारियाँ ) अपने शरीर पर हाथ ही नहीं लगाने देती हैं, अतः बेचारा कामदेव भी इन पर बाण छोड़ता छोड़ता थक-सा जाता है / ( अर्थात् इसकी भीतर से तो संभोग की इच्छा है, पर ऊपर से यह नखरा कर रही है)॥ 27 // [शकुन्तला-जाती है। राजा-मैं अपने मन की चाह को क्यों न पूरी करूँ ? / अवश्य पूरी करूँगा। [जाकर शकुन्तला का धोती का पल्ला (किनारा) पकड़ लेता है ] / शकुन्तला हे पौरव ! विनय और शिष्टता की रक्षा करो। देखो, शिष्टता