________________ अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [तृतीयोशकुन्तला-मुञ्च मुश्च मं, ण वस्तु अत्तणो पहवामि / अथवा सहीमेत्तसरणा किं दाणिं एत्थ करिस्सं ? / [ मुश्च मुञ्च माम्, न खल्वात्मनः प्रभवामि / अथवा सखीमात्रशरणा किमिदानीमत्र करिष्यामि ? ] / राजा-धिग्बोडितोऽस्मि।। शकुन्तला-ण क्खु अहं महाराअं भणामि, देव्वं उवालहामि / [ न खल्वहं महाराज भणामि, दैवमुपालभे] / राजा–अनुकूलकारि दैवं कथमुपालभ्यते ? / बलान्निवारयति = अनिच्छन्तीमपि तां बलादवरुणद्धि / आत्मनः = स्वस्य / गुरुजनाधीनाऽहं, न वपुस्ते दातुम्प्रभवामीत्याशयः / सख्यावेव शरणं यस्याः सा-सखीमात्रशरणा = सखीमात्रपरिरक्षिता। [ नात्र तातकण्वः सन्निहितः / राजा चायं बलशाली / तत्को मे त्राता भविष्यति 1 / हा हा हताऽस्मि ] / किमिदानीं = बलात्कारमा चरितुं प्रवृत्ते राजनि / व्रीडितः लजितः / [ अनिच्छन्त्यां बलात्कारेण प्रवर्त्तमानोऽनया शकुन्तलया तातकण्वं स्मरन्त्योपालब्धो लज्जितोऽस्मि / न खलु = नैव / भणामि = उपालभे / किन्तु-दैवं = भाग्यम् / उपालभे = निन्दामि। अनुकूलं कर्तुं शीलमस्य-अनुकूलकारि = अभीष्टं सम्पादयत् / शकुन्तला-मुझे छोड़दो, मुझे छोड़ दो। मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ। अथवा तात तो कण्व बाहर गए हुए हैं. अतः मेरी तो यहाँ केवल सखी ही सहायक हैं, और वे भी यहाँ उपस्थित नहीं हैं, अतः अब मैं क्या करूँ ? / राजा-मुझे धिक्कार है। इसने मुझे खूब लजित व लाञ्छित किया-जो मेरे ऊपर यह ऐसा ( बलात्कारका ) दोषारोपण कर रही है ! / शकुन्तला-मैं महाराज को दोष नहीं दे रही हूं, किन्तु मैं तो अपने दैव ( भाग्य ) को ही दोष दे रही हूँ। राजा-अपने अनुकूलकारी दैव ( भाग्य) को क्यों दोष दे रही हो ? / अर्थात् दैवने तो तुम को मेरे सदृश चक्रवर्ती राजा को पतिरूप से दे दियाँ, फिर भी तुम देव को उलाहना दे रही हो ! / [अर्थात् जिसके लिए तुम इतनी व्याकुल थी, वही मैं दैवात् तुम्हें मिल गया, फिर भी तुम दैव को क्यों दोष देती हो ?] /