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________________ अभिज्ञानशाकुन्तलम् - [तृतीयोउभे--सहि ! अदो जेव णिठबन्धो। सिणिद्धजणसंबिभत्तं क्खु दुक्खं सज्झवेअणं होदि। [ सखि ! अत एव निर्बन्धः। स्निग्धजनसंविभक्तं खलु दुःखं सह्यवेदनं भवति / राजापृष्टा जनेन समदुःखसुखेन बाला, नेयं न वक्ष्यति मनोगतमाधिहेतुम् / दृष्टो विवृत्य बहुशोऽस्म्यनया सतृष्ण __मत्रोत्तरश्रवणकातरतां गतोऽस्मि // 13 // आयासस्य हेतुरेव हेतुका = क्लेशदायिनी / कथमहं क्लेशकारिणी खल्बनयोर्जाताऽस्मीति सन्तापाधिक्यात्-निःश्वासः / अत एव = 'भूयान् खलु ते क्लेश' इति विभाव्यैव / निर्बन्धः = आग्रहोऽस्माकम् / खलु = निश्चयेन / स्निग्धेषु जनेषु-संविभक्तं = प्रियजननिवेदितम् / अत एव सम्यग्विभक्ततया क्षीणं / दुःख = क्लेशः / सह्या वेदना यस्य तत्-सह्यवेदनं = सहनीयपीडावेगम् / भवति = जायते / पृष्टेति / समं दुःखं, सुखं च यस्य तेन-समदुःखसुखेन = दुःखेषु, सुखेषु च तुल्यमेव दुःखं, सुखञ्चानुभवता / जनेन = सखीजनेन / मनोगतम् = हृदयकोगनिगूहितम् / आधेर्हेतुस्तम्-आधिहेतुम् = मानसिकक्लेशकारणम् / पृष्टा = अनुयुना। इयं बाला = शकुन्तला / न न वक्ष्यति = अवश्यमेवाभिधास्यति / द्वौ नौ कष्ट कहूंगी भी किससे / परन्तु इस सन्ताप के कारण को तुम लोगों से कहकर मैं तुम लोगों के कष्ट का ही कारण बनूँगी। अर्थात् इस बात को सुनकर तुम लोग भी कष्ट में ही पड़ जाओगी। दोनों सखियाँ-हे सखि ! इसीलिए तो हम तुमसे पूरी 2 बात कहने का आग्रह कर रही हैं। क्योंकि-अपने स्नेही जनों को सुनाकर, उनमें बाँट दिये जाने से, दुःख भी कुछ सह्य ही हो जाता है, और उसकी पीड़ा भी कुछ कम हो जाती है। राजा-यद्यपि अपने सुख और दुःख के साथी प्रिय सखी जनों से अनुरोधपूर्वक पूछे जाने पर यह बाला अपने मन की आधि = गुप्त व्यथा को अवश्य बतावेगी ही, अतः इसमें मुझे आतुरता (घबड़ाहट ) ही क्या है।
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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