________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 171 wwwmanawwariwumwwwrammarrrrror शकुन्तला--जदो पहुदि तबोबरणक्खिदा / सो रायस्सी मम दंसणपधं गदो-' ( इत्योक्तेन-लज्जां नाटयति ) / . [यतः प्रभृति तपोवनरक्षिता स राजर्षिर्मम दर्शनपथं गतः-' (-इत्योक्तेन लज्जां नाटयति )] / उभे-कधेदु कधेदु पियसही। [कथयतु कथयतु प्रियसखी] / प्रवृतार्थदाढ्यं. बोधयतः / अत्र = प्रश्नेऽस्मिन् / अनया = शकुन्तलया। बहुशः = भृशं / विवृत्य = परावृत्य | सतृष्णं = साभिलाषं / दृष्टोऽपि-प्रेक्षितोऽपि,-अहम् / उत्तरस्य श्रवणे कातरस्तस्य भावस्तत्ताम्-उत्तरश्रवणकातरताम् = [किमियमभिघास्यति, किंनिमित्ताऽस्याः पीडेति-1 उत्तरश्रवणातुरतां / गतोऽस्मि = प्राप्तोऽस्मि / 'अस्मी' त्यहमर्थेऽव्ययम् / ['अवश्यमाधिहेतुं वक्ष्यती'त्यत्र 'समदुःखसुखेने'ति हेतुगर्भविशेषणमुपात्तमिति काव्यलिङ्गमलङ्कारः / अनुप्रासः] // 13 // ___ यतः प्रभृति = यत आरभ्य / तपोवनस्य / रक्षिता = आश्रमसंरक्षणे व्यापृतः / सः = वृक्षसेचनकाले मया दृष्टः / राजर्षिः = दुष्यन्तः / दर्शनस्य पन्थाःदर्शपथस्तं = लोचनगोचरम् / इति = इत्येतदन्तेन / अोक्तेन = अर्द्धमभिहितेनैव परन्तु मुझे इसने बार बार, घूम 2 कर बड़े ही अनुराग से पूर्ण अपने सतृष्ण नयनों से देखा है, अतः मैं इसके उत्तर को सुनने के लिए उतावला हो रहा हूँ कि देखें यह क्या कारण बताती है / ___ अर्थात्-यह मेरे ही ऊपर अनुरक्त है, या इसकी पीड़ा का अन्य कोई कारण है-इसका निर्णय करने के लिए, इसका उत्तर सुनने को, मैं व्याकुल ( अधीर ) हो रहा हूँ। यद्यपि मैं तो इसके हाव-भावों से अभी तक इसे अपने ही उपर अनुरक्त समझ रहा हूँ, परन्तु इसके मुख से सुने बिना इस बातका ठीक 2 निर्णय नहीं हो सकता है // 13 // शकुन्तला-जबसे तपोवनके रक्षक वे राजर्षि मेरी दृष्टि में आए हैं." (इस प्रकार आधा वाक्य कह कर लज्जा का अभिनय करती हैं = लज्जितसी होती है)। . दोनों सखियाँ-हाँ, हाँ, सखि ! कहो, कहो, रुको मत /