________________ 154 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [तृतीयो- ( मदनबोधां निरूप्य-) भगवन् ! मन्मथ ! कुतस्ते कुसुमायुधस्य सतस्तैक्ष्ण्य मेतत् ? / ( स्मृत्वा-) आं ज्ञातम् !तु / बाला=अप्रगल्भा / परवती = गुरुजनपरतन्त्रा चेति / मे = मम, विदितम् = परिचितमेव / मया ज्ञातमेव / अतस्तस्या अपि मत्याधै स्वयमागमनमसम्भवीति ध्वनितम् / तर्हि तत्कथैव त्यज्यतामत आह-न चेति / निम्नात् = गम्भीरात्प्रदेशात् / 'निम्नं गभीरं गम्भीर मित्यमरः / सलिलमिव / ततः = शकुन्तलायाः सकाशात् / मे = मम / हृदयं - चित्तं / न निवर्त्तते = तां मनसो दूरीकर्तन शक्नोमत्यर्थः / [प्रसह्य हरणीयत्वाऽभावे प्रस्तुते कार्ये वक्तव्येऽप्रस्तुतस्य कार्यस्य 'तपसो वीर्ये जाने' इत्यस्य कथनादप्रस्तुतप्रशंसा / उपमा च / 'उपायाऽदर्शनं यत्त तापनं नाम तद्भवेदिति विश्वनाथोक्तेस्तापनं नाम प्रतिमुखसन्ध्यङ्गञ्च // 2 // ]| ___ मन्मथ ! = हे कन्दर्प ! / कुसुमानि-आयुधं यस्यासौ-कुसुमायुधः, तस्य = पुष्पायुधस्य / एतत् = ईदृशं / तीक्ष्णस्य भावस्तैक्षण्यं = हृदयवेधकत्वम् / 'आम्' इति स्मृतौ / 'आं ज्ञाने, निश्चयस्मृत्योरिति मेदिनी / बल-शाप देकर मुझे सपरिवार भस्म कर देने की कण्व की शक्ति को भी मैं खूब जानता हूं। और यह बाला पराधीन है, कण्व की आज्ञावर्तिनी है-यह भी मैं जानता हूं। अतः कण्व की आज्ञा के विना इसके साथ किसी प्रकार सम्बन्ध स्थापित करना असम्भव है, और विपत्ति से खाली नहीं है-यह भी मैं खूब समझ रहा हूं। परन्तु क्या करूँ मेरा मन तो उसकी ओर से उसी प्रकार नहीं हट रहा है, जैसे नीची भूमि से ऊपर की ओर जल / अर्थात् नीचे भूभाग से जल को ऊपर की ओर हटाना जैसे कठिन है, वैसे ही शकुन्तला की ओर से मेरे मन को हटाना भी मेरे लिए कठिन है // 2 // (काम बाधा का अभिनय करके ) मन को मथन करनेवाले हे भगवन् ! कामदेव ! जब आप कुसुमायुध ( फूलों के बाण रखनेवाले ) हैं, तब आपका यह तीखापन कैसे है ? / फूलों के बाणों को चलाकर भी आप कामिजनों को इतनी भीषण व्यथा कैसे पहुंचाते हो ? / (कुछ याद करके-) ओह ! ठीक है, याद आ गया ! 1 काचित्कः पाठः।