________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 147. विदषकः-( सगर्व-) जुअराजोहि दाणिं संवुत्तो / [युवराजोऽस्मीदानी संवृत्तः] / राजा-(आत्मगत-) चपलोऽयं ब्राह्मणबटुः, कदाचिदिमामस्मप्रार्थनामान्तःपुरिकाभ्यो निवेदयेत् / भक्तु, एवन्तावद्वक्ष्यामि / ( विदूषकस्य हस्तं गृहीत्वा, प्रकाश-) सखे ! माधव्य ! ऋषिगौरवादाश्रमपदं प्रविशामि, न खलु सत्यमेव तापसकन्यायामभिलाषो मे / पश्य क वयं, क परोक्षमन्मथो _ मृगशावैः सह वर्द्धितो जनः / सैनिकान्त्वया सह प्रेषयिष्यामीति / एवञ्च तव राजभ्रातृवद्गमनाभिलाषस्य . साफल्यं सम्भवत्येवेत्याशयः / युवराजः = राजप्रतिनिधित्वेनाभिषिक्तो राजपुत्रराजभ्रात्रादिः। ब्राह्मणबटुः = ब्राह्मण बालको, माधव्यः / अस्मत्प्रार्थनाम् = मम शकुन्तलाऽनुरागम् / आन्तःपुरिकाभ्यः = अन्तःपुरसुन्दरीभ्यो, महादेव्यै च / एवन्तावदिति / मनसि किञ्चिद्विभाव्येत्यर्थः / इत्थंकथयित्वैनं वञ्चयामीति यावत् / ऋषीणां गौरवात् = मुनिवचनादरात् / आश्रमपदं = तपोवनं / प्रविशामि - गच्छामि / सत्यमेव = वास्तविकम् / पूर्व तु सर्वे मया केवलमुपहासेनैव प्रोक्त-. मिति भावः। केति / क वयं = वयं नागरिका महाकुलीनाः सम्राटपदे स्थिताश्च छ / परोक्षो आदि को-तपोवन में विघ्न न हो-इसलिये. तुम्हारे साथ ही नगर (राजधानी) को भेज देना चाहता हूँ / अतः इनके साथ तुम खूब ठाठ से राजा के ( मेरे ) भाई की ही तरह जा सकते हो। विदूषक-तब तो मैं युवराज (राज्य का उत्तराधिकारी) ही हो गया हूँ। राजा-(मन ही मन) यह ब्राह्मण बालक तो बड़ा चञ्चलस्वभाव का है। कहीं शकुन्तला वाली-हमारी इस बात को महल की रानियों से जाकर न कह दे / अच्छा, इससे ऐसे कहता हूँ। (विदूषक का हाथ पकड़कर, प्रकट में-) मित्र माधव्य ! मैं तो ऋषियों के कार्य की गुरुता को देखकर ही आश्रम में जा रहा हूँ। सचमुच में मेरा किसी तापस कन्या में मन नहीं लगा है। क्योंकि देखो-कहाँ तो हम वैदग्धीप्रिय नागरिक लोग ( शहर के रहने वाले) और कहाँ मृगों के बच्चों के साथ पलो हुई भोली-भाली तपस्वियों की ये बालिकाएँ। 1. 'सममेधितो जनः पा० /