________________ 146 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [द्वितीयोविदषकः--भो ! मा रक्खसभीरु मं अवगच्छ / [ भोः ! मा राक्षसभीरुकं मामवगच्छ ] / राजा--(स्मितं कृत्वा-) भो महाब्राह्मण ! - कथमिदं त्वयि सम्भाव्यते / विदूषकः--तेण हि राआणुअ बिअ गच्छिदं इच्छामि / [ तेन हि राजानुज इव गन्तुमिच्छामि ] / 'राजा--'ननु तपोवनोपरोधः परिहरणीय' इति सर्वानेवाऽनु यात्रिकांस्त्वयैव सह प्रेषयिष्यामि / कार्यव्यग्रतां = मुनिजनकार्यसंसक्तताम् / भीरुरेव भीरुकः, राक्षसैर्भीरुकस्तं = राक्षसभीतम् / __यद्यहं राजधानीमभिगमिष्यामि तदा भवान्मां राक्षसभीतं मन्येत अतो यदिमां तथा नैवमनुते भवांस्तदा गमिष्यामीत्याशयः / हे महाब्राह्मण ! = हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! अत्र 'महाब्राह्मणेति सम्बोधनमुपहासादेव / महाब्राह्मणपदस्य पुण्यजनादिशब्दवद्विपरीतलक्षणया, रूढ्या वा, निन्दितब्राह्मणपरत्वात् / तदुक्तं-'शङ्ख, तैले, तथा मांसे, वैद्ये, ज्यौतिषिके, द्विजे / यात्रायामथ निद्रायां, महच्छब्दो न दीयते // इति / राजानुज इव = राजकनिष्ठभ्रातेव / नन्विति / स्वीकृतावत्र ननुः / तपोवनस्योपरोधः = तपोवनबाधा। इति = इति हेतोः। अनुयात्रिकान् = मम अनुयायिनः विदूषक-हे मित्र ! तुम मुझे कहीं राक्षसों से डरकर भागा हुआ तो नहीं समझ लोगे ? / राजा-(हँसकर-) हे महाब्राह्मण ! ( ब्राह्मणों में श्रेष्ठ, वा मुर्दा-फरोश ), तुमारे ऐसे वीर को डरकर भागा हुआ हम कैसे समझ सकते हैं ? / तुम तो बड़े वीर हो। (ब्राह्मण को महाब्राह्मण कहना एक तरह की गाली देना ही है / क्योंकि मृतक के 11 दिन के भीतर का दान लेनेवाला ब्राह्मण ही महाब्राह्मण कहलाता है)। विदषक-तो मैं राजा के छोटे भाई की तरह शान से, खूब ठाट-बाट से ही राजधानी में जाना चाहता हूँ। क्योंकि अब तो मैं राजा का छोटा भाई ही हो गया हूँ। राजा-ठीक है, मैं अपने साथ के सभी सैनिक व दर्बारी मुसाहब /