________________ ऽङ्कः ] 10 अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 145 राजा-सत्यमाकुलीभूतोऽस्मि / ___ कृत्ययोमिन्नदेशत्वाद् द्वैधी भवति मे मनः / * पुरः प्रतिहतं शैलैः स्रोतः स्रोतोवहां यथा // 18 // (विचिन्त्य- ) सखे ! माधव्य ! त्वमप्यम्बाभिः पुत्र इत्र गृहीतः / स भवानित: प्रतिनिवृत्त्य, तपस्विकाय्यव्यग्रतामस्माकमावेद्य, तत्रभवतानां पुत्रकार्यमनुष्ठातुमर्हति / सत्यमिति-अर्द्धाङ्गीकारे / आकुलीभूतः = व्याकुलः / तत्कारणमाह कृत्ययोरिति / कृत्ययोः = कार्ययोः। भिन्नो देशो ययोस्तयोर्भावस्तत्त्वं, तस्मात्-भिन्नदेशत्वात् / नानादेशस्थत्वात् / मातृकार्य राजधान्यां, मुनिकार्ये च तपोवने इत्येकदा द्वयोग्नुष्ठानाऽसम्भवादित्याशयः। मे मनः-पुरः = अग्रे / शैलैः = पर्वतैः। प्रतिहतम् = अवरुद्धं / स्रोतोवहां = नदीनां / स्रोतः = प्रवाहः / यथा = इव / द्वैधीभवति = द्विधा भवति / संशयाकुलं भवति / नदीप्रवाहोऽपि-मार्गे पर्वतैरवरुद्धो द्विधा भवति / [ उपमा / अतिशयोक्तिश्च ] // 18 // इतः = आश्रमपरिसरात् / तपस्विनां कार्येषु व्यग्रस्तस्य भावस्तां-तपस्वि राजा -मित्र ! वस्तुतः मैं बड़ा हो व्याकुल हो गया हूँ। दोनों हो कार्य अवश्य कर्तव्य हैं / अब किसे करूँ, किसे छोडूं ? / जैसे सामने पर्वत के आ जाने से उससे अवरुद्ध होकर नदी का प्रवाह दो भागों में बट जाता है, पर्वत के दोनों ओर बहने लगता है, वैसे ही इन दोनों कार्यों के भिन्न 2 दिशाओं में होने के कारण प्रतिहत हो मेरा मन भी द्विविधा में पड़ गया है / 'इसे करूँ' या 'उसे करूँ' इसी संशय में मैं पड़ गया हूँ // 18 // (कुछ सोचकर ) सखे माधव्य ! हमारी माताओं ने तुमको भी पुत्र की ही तरह मान रखा है। अतः तुम यहाँ से राजधानी जाकर, माताओं को मेरे तपस्वियों के कार्य में लगे रहने की सूचना देकर, आने में मेरी असमर्थता को. बताकर, उनका पुत्रोचित कार्य का सम्पादन तुम्हीं कर देना। भावार्थ-इस व्रत का पारण पुत्र के हाथ से दिए हुए भोजन के पास से होता है, सो तुमही हमारी ओर से उनके मुख में ग्रास दे देना / तुम भी तो उनके माने हुए पुत्र हो ही।