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________________ अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [द्वितीयो www राजा--इतस्तपस्विनां कार्यम्, इतो गुरुजनाज्ञा / उभयमप्यनतिक्रमणीयम् / तत्किमत्र प्रतिविधेयम् ? / विदूषकः-भो ! तिसङ्घ बिअ अन्तरा चिट्ठ / ' [भोः ! त्रिशङ्कुरिवाऽन्तरा तिष्ठ ] / / णीयाः / उपवासः प्रारब्ध एव, केवलं तस्य समाप्तिश्चतुर्थेऽह्नि भविष्यतीति उपवासाऽकरणप्रार्थना तु नैवायुष्मता कार्येति व्यज्यते / पाठान्तरे-पुत्रदत्तपिण्डेन = कवलेन, पारणा = व्रतसमाप्तिर्य।त्यों बोध्यः / अनतिक्रमणीयम् = अनुल्लङ्घनीयम् / प्रतिविधेयम् = कर्त्तव्यम् / ____ अन्तरा = मध्ये / न नगरं गच्छ, न च तपोवनं गच्छेत्याशयः / होगा / उस दिन आयुष्मान् (आप) अवश्य उपस्थित होकर हमारा उत्साह एवं हर्ष बढ़ावें। राजा-इधर तो मुझे तपस्वियों का कार्य करना है। उधर गुरुजनों (माताओं) की आज्ञा का भी पालन करना आवश्यक है / ये दोनों ही आवश्यक कार्य हैं / अब क्या करना चाहिए ? / विदूषक-हे मित्र ! त्रिशंकु की तरह बीच में ही लटकते रहो / [त्रिशंकु राजा-सदेह स्वर्ग जाने की इच्छा से यज्ञ करने को प्रवृत्त हुआ और अपने कुल गुरु वसिष्ठजी से यज्ञ कराने की प्रार्थना की / गुरुजी ने किसी कारणवश तत्काल ऐसा यज्ञ कराने की अपनी असमर्थता प्रकट की। तब त्रिशंकु ने वसिष्ठजी के विरोधी विश्वामित्रजी के द्वारा ऐसा यज्ञ कराया / मन्त्रों के प्रभाव से त्रिशंकु इसी देह से स्वर्ग को चला / पर गुरु वसिष्ठजी का अपमान करके, उनकी अनुमति के बिना ही यज्ञ करने से, देवता असन्तुष्ट हो गये। और उन्होंने उसे स्वर्ग से गिरा (ढकेल) दिया। नीचे से विश्वामित्र जी भी मन्त्रों से उसे स्वर्ग भेजने के लिये जोर लगा ही रहे थे। फल यह हुआ कि त्रिशंकु आकाश में ही ( अधर में ही) लटकने लगा। स्वर्ग में देवताओं ने नहीं घुसने दिया / भूमि पर विश्वामित्र जी ने उसे नहीं गिरने दिया। अतः वह न इधर ( भूमि पर वापिस ) ही आ सका, न ऊपर हो जा सका। बेचारा बीच में (आकाश में) ही उलटा होकर लटकता रह गया। अतः यह आकाश में उल्टा होकर आज तक लटक रहा है / इसके मुख से जो लार गिरती है उसीसे 'कर्मनाशा नदी निकली है-उसके जल के छूने से ही धर्म-कर्म सब नष्ट हो जाते हैं। अतः उस नदी का जल अस्पृश्य है / ऐसी पौराणिक कथा है] /
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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