________________ 110 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [द्वितीयोविषकः-(राज्ञो मुखमवलोक्य-) अत्त भवं किम्पि हिअए कदुअ मन्तेदि / अरण्ये क्खु मए रुदिदं ! / [ ( राज्ञोमुखमवलोक्य ) अत्र भवान् किमपि हृदये कृत्वा मन्त्रयति ! अरण्ये खलु मया रुदितम् ? ] | राजा--(सस्मितम्-) 'अनतिक्रमणीयं सुहृद्वाक्य'मिति स्थितोऽस्मि / विदषकः--( सपरितोष ) तेण हि तुमं चिरं जीव / ( इत्युत्थातुमिच्छति / ) [ ( सपरितोष ) तेन हि त्वं चिरञ्जीव ( –इत्युत्थातुमिच्छति )] / . राजा--तिष्ठ / शृणु मे सावशेषं वचः / विदूषकः--आणवेदु भवं। [आज्ञापयतु भवान् / ] किमपि हृदये कृत्वा = किमपि वस्तु मनसिकृत्येव / मन्त्रयसि = विचारयसि, किमपि भाषसे वा / अरण्ये रुदितम् = किमया निष्फल स्वदुःखं प्रकटितम् / भवान्न किमपि शृणोति मद्वाक्यमि-याशयः। अनतिक्रमणीयम् = अनुल्लङ्घनीयम् / स्थितोऽस्मि = मृगयाविमुखीभूतोऽस्मि / सपरितोषं = सानन्दं / तेन = अनेन निर्णन, विदूषक-(राजा की मुख की ओर देखकर ) आप तो मन ही मन कुछ विचार रहे हैं ( बड़बड़ा रहे हैं ) / मानों किसी बात को हृदय में रखकर कुछ कह रहे हैं / क्या मैंने जङ्गाल में ही रोदन किया है ? / अर्थात् मेरी प्रार्थना क्या आपने अनसुनी कर दी ? / राजा-(मुस्कुराता हुआ ) नहीं 2, मित्र का ( आपका ) वचन तो अनुल्लङ्घनीय ही है, इसीलिए मैं चुप हो गया हूँ / अर्थात् तुम्हारा प्रस्ताव मुझे स्वीकार है। विदूषक-( सन्तुष्ट होकर ) भगवान् करें आप चिरंजीव हों। ( उठनाचाहता है)। राजा-ठहरो-ठहरो। मेरी बात तो पूरी 2 सुन लो। विदूषक-अच्छा, आज्ञा करिए / ( कहिए ) /