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________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 109 राजा--( आत्मगतम् ) अयमेवमाह, ममापि कण्वसुतामनुस्मृत्य मृगयां प्रति निरुत्सुकं चेतः तथा हिन नमयितुमधिज्यमुत्सहिष्ये धनुरिदमाहितसायकं मृगेषु / सहवसतिमुपेत्य यैः प्रियायाः कृत इव लोचनकान्तिसंविभागः // 3 // दीनाम् / 'चालेन' इति शेषः / अनीशोऽस्मि = अशक्तोस्मि / प्रसीद = कृयां कुरु / एवमाह = 'एकाहं विश्रम्यताम्' इत्याह / अनुस्मृत्य = स्मृत्वा / न नमयितुमिति / ज्यामधिगतम्-अधिज्यम् = अध्यारूढमौर्वीकम् / आहितः सायको यत्र तत्-आहितसायकम् - धृतशरम् / इदं धनुः = कोदण्डमेतत्, मृगेषु = हरिणेषु,-यैः-प्रियायाः = शकुन्तलायाः, सहवसतिं = सहवासम्, उपेत्य = समधिगत्य, लोचनयो: नयनयो:, कान्तेः = प्रभायाः, संविभागः = समादानं, विभागः कृतः- कृतम् / [मत्प्रियालोचनतुल्यन यनानां हरिणानामुपरि धनुरिद]-नमयितुं = व्यापारयितुं, नोत्सहिष्ये = बाणपातं कत्तं न समर्थी भविष्यामि / प्रियालोचनसदृशलोचनेषु हि हरिणेघु कथं प्रहरिष्ये ? [अत्र पूर्वार्द्धवाक्यार्थ प्रति उत्तरार्द्धवाक्यार्थी हेतुरिति काव्यलिङ्गमलङ्कारः, उत्प्रेक्षा श्रुत्यनुप्रासश्च / ] // 3 // पैर भी मैं हिला-डुला नहीं सक रहा हूं। अतः मेरे ऊपर आप दया करिए / कम से कम एक दिन तो मृगया (शिकार ) बन्द करके विश्राम कर लीजिए। इस प्रकार हमें भी एक दिन तो कम से कम विश्राम ले लेने दीजिए। - राजा-(मन ही मन ) यह भी मृगया बन्द करने को कह रहा है, और मेरा भी मन कण्वपुत्री शकुन्तला को याद करते रहने के कारण मृगया के प्रति उदासीन ही हो रहा है / जैसे अपने इस चढ़े हुए (बाण सन्धान किए हुए) धनुष को मैं उन मृगों के ऊपर नीचा कर उन पर बाण नहीं छोड़ सकूँगा, जिन मृगों ने मेरी प्रिया के साथ ही साथ वन में रह कर उसकी सी नेत्रकान्ति पाई है। अर्थात्-मेरी प्रिया की ही तरह इन मृगों के भी लम्बे 2 काले 2 नेत्र हैं, अतः इन पर बाण छोड़ना मैं उचित नहीं समझता हूँ। मेरे से उन पर बाण नहीं छोड़े जा सकेंगे।
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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