________________ मुनिचन्द्र सूरि जी महाराज ने प्रस्तावना में बहुत कुछ लिखा ही है मगर मैं इतना जरूर लिखना चाहता हूं कि आगमेतर जैन साहित्य में सूर्यदेव के विषय में सटीक यह पहली कृति है। इसके संपादन एवं संशोधन का कार्य मुझे मिला यह मेरा सौभाग्य है और गुरुदेव श्रीमद् विजय समुद्र सूरीश्वर जी महाराज की कृपा है। ... इस ग्रंथ का ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्त्व तो है ही मगर दैनंदिन कार्यों में सूर्य का उपयोग कितना कितना महत्त्व रखता है यह इस ग्रंथ के अध्ययन से सरलता पूर्वक जाना जा सकता है। साधना, उपासना के क्षेत्र में सूर्य की उपासना से क्या-क्या उपलब्ध हो सकता है; यह भी इस ग्रंथ के अध्ययन से समझा जाना जा सकता है / सूर्य के संदर्भ में ऐसे बहुत सारे आश्चर्योत्पादक रहस्य भी जाने और समझे जा सकते हैं जिनका वैज्ञानिक महत्त्व हो सकता है; धार्मिक दृष्टि से महत्त्व हो सकता है। शारिरिक, मानसिक और आत्मिक दृष्टि से महत्त्व हो सकता है। यह ग्रंथ सूर्य के संदर्भ में अन्वेषण की एक मुख्य दिशा बन सकता है यह विश्वास जतलाता हूं। इस ग्रंथ में रचनाकार महापुरुष ने सूर्यकिरणों एवं सौरऊर्जा से संबंधित ऐसे कई-कई निर्देश दिये हैं जिनका प्रयोग नए ऊर्जास्रोतों का रूप धारण कर सकता है। यह ग्रंथ रचनाकार महोदय विद्वद्वरेण्य महोपाध्याय श्री भानुचन्द्र जी महाराज एवं प्रथम संशोधक उपाध्याय श्री सिद्धिचंद्र जी महाराज के व्याकरण, कोष और अन्यान्य दर्शन विषयक गहन अध्ययन एवं प्रस्तुतिकरण का एक उदाहरण तो है ही मगर मुसलिम सम्राट अकबर की प्रार्थना का परिणाम है यह ग्रंथ; इतना ही नहीं स्वयं सम्राट अकबर इस ग्रंथ को पढकर सूर्य देव की आराधना करता था / महोपाध्याय श्री भानुचन्द्र जी महाराज के 24