________________ ॥ॐ ह्रीं अहँ नमः / / / / श्रीमदात्म-वल्लभ-समुद्र-इन्द्रदिन्नसद्गुरुभ्यो नमः // संपादकीय एक दिन काम करते-करते हम दोनों (मैं और मेरे विद्यागुरु जी श्रीमान् अमृतभाई मोहनलाल जी भोजक) थक गए और यूं ही बैठे हुए बातें कर रहे थे। मैंने बात-बात में उनसे पूछा- गुरु जी ! आज थैला भारी सा है; क्या मेरे लिए कुछ लाए हो ? गुरु जी ने अपने थैले में से तीन प्रतियां निकाली और मुझे दिखाते हुए कहा- बहुत महत्त्वपूर्ण है यह ग्रंथ; ये 'स्वोपज्ञटीकायुत सूर्यसहस्रनाम' की तीन प्रतियां हैं / यह ग्रंथ अप्रकाशित है / बहुत मेहनत और लंबे समय के बाद मिली हैं ये तीनों प्रतियां / मेरी इच्छा है कि तुम इसकी प्रतिलिपि तो करो ही मगर इसका संशोधन भी करो। मैंने उनसे तीनों प्रतियां ले ली / मैंने देखी और मुझे जंच गईं। मैंने गुरु जी से कहा- यदि आप सहयोग देगें तो मैं प्रतिलिपि भी कर दंगा और संशोधन भी। उन्होंने हामी भर दी। ' मैंने अपनी अनुकूलता के अनुसार कार्य प्रारंभ किया और पूरा भी। मैंने शंकित स्थानों पर मूल प्रतियों से मिला भी लिया और मुझे कहा- लाला जी महाराज, अब छपवा भी दो / ग्रंथ पूरा तैयार है। मैंने कहा- गुरु जी ! आपने काम देख लिया; पसंद भी कर लिया तो अब कभी छंप भी जाएगा। . उन्होंने मेरी प्रतिलिपि और संशोधित पाठ वाले सभी पृष्ठ मुझे दे दिये और मूल प्रतियां अपने पास रख ली / इस रीति से संपादकीय लिखते हुए मूल प्रतियां मेरे पास न होने के कारण मैं अपनी आदर्श तीनों प्रतियों का परिचय 31