________________ // 299 // // 300 // // 301 // // 302 // // 303 // // 304 // इतश्चानन्दनगरे, हरिणा सूरिरुत्तमः / दृष्टो मनोरमोद्याने, निषण्णस्तं प्रणम्य सः ततो भगवता तेन, देशना क्लेशनाशिनी। दत्ता नृपो जहर्षोच्वैस्तामाकर्ण्य श्रवःसुधाम् यावद् विचिन्तयामास, भगवान् सर्वभाववित् / तदिदं परिपृच्छामि, किमहो तत्र. कारणम् जातोऽहं प्राक् प्रियस्तस्य, स च मे धनशेखरः। किं पुनः क्षणमात्रेण, क्षिप्तोऽहं तेन वारिधौ कुपितः किं स देवोऽस्मै, कुतः क्षिप्तोऽम्बुधावसौ / किं जीवति मृतो वाऽसौ, तावत् सूरिश्वोचत विरूपं त्वयि यद्भूप!, चकार धनशेखरः / तत्रापराध्यतः पापमित्रे सागरमैथुनौ , स हि चारुः स्वरूपेण, ताभ्यां च क्रियतेऽन्यथा / त्वबोहित्थस्य हरणे, सागरेणास्य धीः कृता मयूरमञ्जरीभोगे, मैथुनेन कृता मतिः / तद्वशात् त्वं जले क्षिप्तस्तेनास्मै कुपितः सुरः तेन त्वमुद्धृतः सोऽब्धौ, क्षिप्तस्तदपि नो मृतः / / अधुना पापमित्राभ्यां, नानादेशेषु पीड्यते इत्थं चतुर्ज्ञानभृता सूरिणाऽभिहिते नृपः / दध्यावहो मुनेर्ज्ञानं, पापोऽहो धनशेखरः पुनः पप्रच्छ सूरीन्द्रं, हरिमयि कृपापरः / कदा त्यक्ष्यति संसर्ग, स तयोः पापमित्रयोः सूरिराह पुरं भावप्रसादाख्यं विराजते। .. राजा शुद्धाशयस्तत्र, तस्य चात्मरतिः प्रिया , // 305 // // 306 // // 307 // // 308 // // 309 // // 310 // ,