________________ // 239 // // 240 // // 241 // // 242 // // 243 // // 244 // ततश्च वीक्ष्य विपुलं, प्रजारागं हरौ नृपः / नीलकण्ठो दधौ चित्ते, कलुषत्वं दुराशया(यात्) अचिन्तयच्च चित्तेऽसौ, वृद्धोऽहं तनयोज्झितः / तन्त्रं सबान्धवं सर्वमनुरक्तं हरौ मम महाबलोऽयं द्रुमवत्, तन्मामुन्मूलयिष्यति / वर्धमानः समुत्तोल्यबलादप्रतिबन्धकः नोपेक्षणीयस्तदयं, यतो नीतिविदो विदुः / अर्धराज्यहरं भृत्यं, यो न हन्यात् स हन्यते अमन्त्रयत् ततो राजा, कर्तव्यं हरिमारणम् / सुबुद्धमन्त्रिणा सार्धं, सोऽपि राजाऽनुवृत्तिभाग वज्राहतोऽपि वाक्येन, तेन प्रत्यब्रवीदिदम् / युक्तं ते रुचितं देव, शिष्टानां युक्तबुद्धयः सुबुद्धिर्नीलकण्ठश्च, ततः स्वं स्वं गृहं गतौ / . सुबुद्धेरथ सञ्जाताः, सङ्कल्पा मनसीदृशाः धिर मोहसुखलुब्धत्वं, धिग् महामोहजृम्भितम् / धिग् राज्यं काष्ठवज्जीर्णं, कुविकल्पघुणव्रजैः जामाता भागिनेयश्च, प्रियोऽस्याभूत् पुरा हरिः / तृष्णाकृष्णाहिदष्टस्य, साम्प्रतं भाति शत्रुवत् राज्यलोभादमुं हन्तुं, राजा यद्यपि वाञ्छति / रक्षणीयस्तथाऽप्येष, नररत्नं मया हरिः ततो दमनकं चेट, प्रच्छनं प्रजिघाय सः / तत्सन्देशं हरेः सोऽवग, देशस्त्याज्योऽधुना त्वया सुबुद्ध्युक्तमिति श्रुत्वा, निर्भयोऽपि हरिर्मनः / समुद्रलङ्घने चक्रे, प्रोक्ता वार्ता च सा मम // 245 // // 246 // // 247 // // 248 // // 249 // // 250 // 85