________________ // 227 // // 228 // // 229 // // 230 // // 231 // // 232 // इतो मैथुननिर्देश, इतः सागरलङ्घनम् / सम्पन्नस्तदयं न्याय, इतो व्याघ्र इतस्तटी . . सागरस्यातिवाल्लभ्यान्मैथुनाज्ञाऽनतिक्रमात् / ततो मया कृतं कर्म, दारुणं लोकगर्हितम् याः काश्चिद् बालविधवा, रण्डाः प्रोषितभर्तृकाः / व्रतिन्योऽन्याश्च मूल्येन, विना ताः सेविता मया / ततोऽहं मैथुनहृतस्तृप्तो नैवान्त्यजास्वपि / योषित्सम्बन्धिभिर्लोकैस्ताडितश्च विगोपितः हरिपुण्योदयबलात्, केवलं नैव मारितः / . जीवन्मृतस्तु धिक्कारप्रहारैर्नागरैः कृतः तथाऽपि मे न मूढस्य, व्यावृत्तं मैथुनान्मनः / जातोऽहं प्रियमित्रेऽस्मिन्निर्मिथ्यस्नेहनिर्भरः अभूत् तुच्छमतेरित्थं, मैथुनो मम वल्लभः / ततोऽपि वल्लभतरः, सागरो रागरोचितः मित्रयुग्मेन तेनेत्थं, मयकाऽभिमतं सुखम् / . दुःखितेनाप्यखण्डाभ्यां, पक्षाभ्यामिव पक्षिणा अन्तःपुरं पुरं राज्यं, हरौ रक्तमथाखिलम् / बभूव नीलकण्ठस्य, पराकुण्ठितविक्रमे ततोऽभूत् तस्य विपुला, समृद्धिः कोशदण्डयोः / जनानुरागो वल्लीनां, सम्पदा नववारिदः(दे) अथासौ कुञ्जरारूढो, राजलोकेन वेष्टितः / छत्रेण, ध्रियमाणेन, चारुचामरवीजितः युक्तो मयूरमञ्जर्या, पौलोम्या मघवानिव। .. पुरेऽखिले विशिष्टश्रीविचचार वयस्ययुग् . // 233 // // 234 // // 235 // // 236 // // 237 // // 238 // 84