________________ // 215 // // 216 // // 217 // // 218 // // 219 // // 220 // निखनामि क्वचिद् गर्ते, शङ्कां धृत्वोत्खनामि च / सुखं दिने च रात्रौ च, नाविश्वासाद् बभूव मे ध्यानं सर्वजगद्रलंसंग्रहस्य मया धृतम् / स्थितोऽहं सदने नित्यं, रत्नोपार्जनलोलुपः इतश्च द्वौ नरौ कालपरिणत्यनुजीविनौ / कदाचिच्चक्रतुर्जल्पं, मिथो मैथुनयौवनौ यौवनेनोदितं मित्र ! भवजन्तुर्ममाधुना / धनशेखररूपेण, गतोऽस्ति वशवर्तिताम् तवाप्यवसरों गन्तुमस्ति तस्यान्तिकेऽधुना / भाषितं मैथुनेनापि, तत्सम्बन्धं कुरुष्व मे यौवनेनोदितमसौ, पूर्वं संसेवितो मया। . तद् दृढं तव सम्बन्धं, करिष्यामि सहामुना एवं तु कृतसंभाषौ, प्राप्तौ यौवनमैथुनौ। . उक्तश्च यौवनेनाहं, वत्सलोऽयं सुहन्मम . अतोऽहमिव सर्वत्र, द्रष्टव्योऽयं सदा त्वया / अकृत्रिमदृशा दृष्टस्तव दास्यत्यसौ सुखम् ततो यौवनवाक्येन, तेनाहं मुदितो हृदि / प्रतिपत्रौ च मयका, तौ प्रीतेनान्तरात्मना मैथुनाय मया दत्तः, प्रासादः स्वान्तसंज्ञकः / यौवनाय च गात्राख्यस्तत्सम्बद्धो द्वितीयक: कृता विलासशौर्याद्या यौवनेन गुणा मम / मैथुनेन कृतोऽतृप्तो, भुक्तैः स्त्रीणां शतैरपि मैथुनेनेरितो यावद्, रन्तुमीहे पणाङ्गनाम् / धनरक्षापरस्तावत्, सागरो मां निषेधति // 221 // // 222 // // 223 // // 224 // // 225 // // 226 // 83