________________ // 720 // // 721 // // 722 // // 723 // // 724 // // 725 // गतस्तस्यापणे तत्र, दीप्तिं बहुलिका ययौ / कृतं तत्पादपतनं, चक्षुर्मोदाश्रुणा भृतम् उक्तं मया च दृष्ट्वा त्वां, जनकस्य स्मराम्यहम् / पुत्र एवास्यपुत्रस्य, त्वं ममेति जगाद सः नीतोऽहं स्वगृहे तेन, बन्धुमत्याः समर्पितः / स्वभार्यायास्तया स्नानभोजनादि च कारितः पृष्टश्च नामगोत्रादि, मया सर्वं निवेदितम् / सजातीयोऽयमित्युच्चैर्मुदितः सरलो हदि जगौ बन्धुमती भार्ये !, धात्रा नूनमपुत्रयोः / पुत्रोऽयमावयोर्दत्तो, वृद्धत्वपरिपालक: तच्छ्रुत्वा बन्धुमत्याप, मुदं मय्येव मन्दिरम् / . सरलेन च निःक्षिप्तं, हट्टस्थं दर्शितं धनम् हट्ट एव स शेते च, मयुक्तो धनमूर्च्छया / अन्यदा तिष्ठतोर्गेहे, सन्ध्यायामावयोः सुखम् सरलंप्रियमित्रस्य, बन्धुलस्य समाययौ। गृहादायकस्तेन, प्रोक्तं चेदं सुहृद्वचः यथाऽद्य मद्गृहे षष्ठीजागरस्य महोत्सवः / सुतस्यास्ति तदागत्य, वस्तव्यं भवता ध्रुवम् ततोऽहं सरलेनोक्तो, याम्यहं बन्धुलालये / दुस्त्यजो मित्रनिर्बन्धस्तत् त्वं गत्वाऽऽपणे वस मयोक्तं गमनेनालं, हट्टे तातोज्झितस्य मे / अम्बायाः पादमूलेऽहं, वत्स्याम्यद्याविशङ्कितः ततोऽहो स्नेहसारोऽयमिति संचिन्तयन् हृदि / एवं भवत्विति वदन, मुदितः सरलो गतः 11 // 726 // // 727 // // 728 // // 729 // // 730 // // 731 //