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________________ // 468 // // 469 // // 470 // // 471 // // 472 // // 473 // देहादपि स्वमात्मानं, तिष्ठन्ति प्रविविच्य ये। तेषां सुखं विजानातु, कः परोऽनुभवं विना कुमारी न यथा वेत्ति, सुखं दयितभोगजम् / न जानाति तथा लोको, योगिनां समतासुखम् तदेवं सुखपूर्णोऽपि, निन्दितोऽहं मुधा जनैः / .. परमार्थमजानानैः, स्वसुखस्मयनाटितैः नृपतिः प्राह यद्येवं, भोगा दुःखं शमः सुखम् / नेदं प्रबुध्यते कस्मात्, तदेष निखिलो, जनः मुनिराह महामोहशैलूषेन विनाटितः / . . जनो न बुध्यते तत्त्वं, यथा स बठरो गुरुः भूपः प्राह भदन्तासौ, को नाम बठरो गुरुः / कथं न बुबुधे तत्त्वं, तन्मे ब्रूहि महामुने ! मुनिराह महाराज !, सावधानमनाः शृणु / अलब्धमूलो विस्तीर्णो, ग्रामोऽस्त्येको मनोहर: शिवायतनमस्त्येकं, तत्र रत्नौघपूरितम् / भृतं मनोज्ञैर्विविधैः, खण्डखाद्यकपानकैः धनधान्यहिरण्याढ्यं, वरचेलव्रजान्वितम् / सम्पूर्णोपस्करं शर्मसामग्रीधाम निर्मलम् / तस्य सारगुरुर्नाम, शैवाचार्योऽस्ति नायकः / सकुटुम्बो वसंस्तत्र, स मत्तो वेत्ति नो हितम् स्वकुटुम्बं न पुष्णाति, भवनर्द्धिं न पश्यति / ज्ञातोऽसौ तादृशो धूर्तेश्चौरैस्तद्ग्रामवासिभिः कृतं तैस्तेन भौतेन, सह सख्यं मनोऽनुगैः / . . ते चौराः प्रतिभासन्ते, प्रियास्तस्य हितावहाः . // 474 // // 475 // // 476 // // 477 // // 478 // // 479 // . 40
SR No.004470
Book TitleShastra Sandesh Mala Part 20
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayrakshitvijay
PublisherShastra Sandesh Mala
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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