________________ // 456 // // 457 // // 458 // // 459 // // 460 // // 461 // कृष्णपाक्षिकमूर्धन्यं, यं निन्दन्ति विवेकिनः / स दौर्भाग्यकरः प्राणी, तं स्तुवन्ति नराधमाः शीलसौभाग्यपूर्णोऽपि, मुनिवेषेण धार्मिकः / केनाहं हेतुना लोकैनिन्दितो दुर्भगाग्रिमैः उक्तदोषान्विता लोका, राज्यभाजोऽपि दुःखिनः / अनाख्येयरसोल्लासनिमीलितदृशोऽपि हि व्याघ्रवक्ने प्रविष्टस्य, कराले तीक्ष्णदंष्ट्रया / मृगस्य यत् सुखं भूप तत् सुखं भववर्तिनाम् यथा शोफस्य पुष्टत्वं, यथा वा वध्यमण्डनम् / सुखाभिमानजनितो, विलासो देहिनां तथा अशक्नुवन्तो निर्गन्तुं, दुःखाशनिहता अपि। गृहिणो धर्मरहिता भूपते ! नारकोपमाः सत्साधूनां तु नास्त्येव, क्षुद्रोपद्रवसंभवः / . नष्टं मोहतमस्तेषां, ज्ञानोद्योते व्यजृम्भत . शमामृतं परिणतं, त्रुटिता भववल्लरी। / धर्ममेघसमाधिश्च, स्थिरीभूतो महोदयः सन्तोषदा धृतिः पत्नी, श्रद्धा चित्तप्रसादकृत् / सुखासिकाऽऽह्लादकरी, हिता विविदिषा सदा विज्ञप्तिः पाटवाधात्री, मेघा सद्बोधकारिणी / नैश्चिन्त्यकृदनुप्रेक्षा, मैत्री चित्तानुवर्तिनी करुणा वत्सलाऽऽकालं, मुदिताऽन्तःप्रसादकृत् / उपेक्षोद्वेगहन्त्री चेत्येष तेषां प्रियागणः इमाभिरनुरक्ताभिर्मोदमाना मुनीश्वराः / तिष्ठन्ति मग्ना संसारातीतशर्ममहोदधौ 36 // 462 // // 463 // // 464 // // 465 // // 466 // // 467 //