________________ // 336 // // 337 // // 338 // // 339 // // 340 // // 341 // ततो जवनिकां ते द्रागपनिन्युनिरीक्ष्य तम् / यथोक्तरूपं नृपतिः, ससमाजो विसिस्मि(ष्मि)ये विमलस्तु सुधीर्दध्यौ, बुधाचार्यः स एष हि / अहो भगवतो लब्धिः , करुणाऽहो ममोपरि अहो स्वसुखवैमुख्यमहो अन्यार्थनिष्ठता / अहो सौजन्यसारत्वमहो निर्व्याजबन्धुता आह्लादाय यथा चन्द्रो, जीविताय यथाऽमृतम् / तथा लोके स्वभावेन, परार्थः साधुसंगमः तदेष वैक्रियं रूपं, विधाय भगवानयम् / इहायातो महाभागो, बन्धून् बोधयितुं मम अयं संदिष्टवान् रत्नचूडद्वारा हि मे पुरा / . भिन्नरूपोऽहमेष्यामि, व्यक्तं वन्द्यस्त्वया च न दुःखितान्वेषणं कार्य, केवलं स्वार्थसिद्धये / इति संस्मृत्य विमलो, हृदा तस्मै नमोऽकरोत् दत्तस्तेनापि मनसा, धर्मलाभः सुखावहः / अन्तःशीतगृहं सोऽथ, राजभृत्यैः प्रवेशितः द्राकृत्य स निषण्णोऽथ, भूतले खेदनिःसहः / गलावलम्बितश्वासः प्रवृत्तः प्रचलायितुम् हसन्ति तादृशं प्रेक्ष्य, जनाः केचन तं परे / शोचन्ति केऽपि निन्दन्ति, केऽप्येवं ब्रुवते मिथः 'दुःखी दीनस्तथा श्रान्तस्तृषितश्च बुभुक्षितः / आनीतोऽत्रैष किं वेत्ति, न किञ्चित् प्रचलायते तदाकर्ण्य वचस्तेन, क्रुद्धेन बुधसूरिणा / भाषितं भास्वरौ कृत्वा, दीपवनेत्रगोलको // 342 // // 343 // // 344 // // 345 // // 346 // // 347 // 29